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ब्राह्मणों की पात्रता और उन्हें वान देने के कारण
४४५ यही बात बलपूर्वक कही थी कि धार्मिक दान केवल सुपात्र ब्राह्मणों को, जो विद्वान् एवं सदाचारी होते हैं, देने चाहिए। और देखिए आपस्तम्ब धर्म सूत्र (२।६।१५।९-१०), वसिष्ठ धर्म सू० (३१८, ६।३०), मनु (३। १२८, १३२, ४१३१), याज्ञ० (११२०१), दक्ष (३।२६ एवं ३१)। सभी ब्राह्मण दान के अधिकारी नहीं माने जाते थे, जो गुणवान् होते थे वे ही पात्र कहे जाते थे। पात्र की कुछ परिभाषाएँ यहाँ दे देना ठीक होगा। अनुशासनपर्व (२२।३३-४१) ने योग्य (पात्र) ब्राह्मण के गुणों का वर्णन यों किया है-'ऐसे ब्राह्मणों को दान देना, जो क्रोधरहित, धर्मपरायण, सत्यनिष्ठ एवं आत्मसंयमी होते हैं, महाफलदायक होता है। ऋषियों का कथन है कि वही ब्राह्मण 'पात्र' है जो चारों वेद पढ़ता है, (वेदों के) अंगों को पढ़ता है, जो छः प्रकार के कार्यों (यथा--मद्य-मांस से दूर रहना, मर्यादा पालन करना, पवित्र रहना, वेदाध्ययन, यज्ञ-सम्पादन, दान देना) में प्रवृत्त रहता है। केवल एक ब्राह्मण, जो प्रज्ञावान् हो, श्रोत्रिय (वेदज्ञ) हो, शीलवान् हो, अपने सम्पूर्ण कुल को बचा लेता है। किसी ब्राह्मण के विषय में ऐसा सुनकर कि वह गुणों से परिपूर्ण है, साधुसम्मति से अच्छा समझा जाता है, उसे दूर देश से भी बुलाना चाहिए और स्वागत करना चाहिए तथा सभी प्रकारों से उसे सम्मानित करना चाहिए। याज्ञवल्क्य ने बहुत ही संक्षेप में पात्र ब्राह्मण की परिभाषी की है-'पात्रता केवल (वैदिक) अध्ययन से ही नहीं, केवल तपों से ही नहीं उत्पन्न होती; वही व्यक्ति पात्र (किसी धार्मिक दान का अधिकारी) समझा जाता है जहाँ ये दोनों (अर्थात् वेदाध्ययन एवं तप) तथा अच्छा आचरण परिलक्षित हो। मनु का कथन है कि ऐसे ब्राह्मण को, जिसने वेदाध्ययन नहीं किया है, जो लालची है तथा प्रवञ्चक है, दान देना व्यर्थ है और दानकर्ता नरक में जाता है (४।१९२-१९४) । भगवद्गीता (१७।२२) ने कुपात्र व्यक्ति को दान देने की भर्त्सना की है और उसे तामस (तमस् से प्रभावित, अबोधता या भ्रम से उत्पन्न) माना है।
___ जब बौद्धधर्म पर्याप्त प्रचलित एवं प्रभावशाली सिद्ध हुआ तथा उसे राजाओं का आश्रय भी मिलने लगा तो ब्राह्मणों को बहुत-सी समस्याओं का सामना करना पड़ा। उन्हें ब्राह्मणों की संख्या पर्याप्त रूप में उच्च रखनी पड़ती थी, उन्हें उन ब्राह्मणों के लिए, जो वेदाध्ययन में लगे रहते थे, जीविका-साधन जुटाने पड़ते थे; इतना ही नहीं, उन्हें प्रचलित बौद्ध विचारों में कतिपय को यथासम्भव अपने ग्रन्थों में पचा लेना पड़ा था। प्रत्येक ग्रह्मण में स्वयं अपने वेद एवं उसके सहायक साहित्य में पाण्डित्य प्राप्त करने एवं उसे स्मरण रखने की योग्यता, बुद्धि एवं लगन नहीं भी हो सकती थी। यदि एक सौ ब्राह्मण कुलों पर यह भार सौंपा गया होगा तो उनमें केवल. दस प्रतिशत कुल ही अपने वेद का पाण्डित्य प्राप्त कर सकते थे। किन्तु यह सदैव सम्भावना रही होगी कि जो स्वयं वेद के पण्डित नहीं थे, उनके कुछ पुत्र ऐसे थे जो वेद के प्रकाण्ड पण्डित रहे होंगे। अतः ब्राह्मणों की संख्या बढ़ाने की आवश्यकता पड़ती थी और उन्हें भोजन आदि दिया जाता था, नहीं तो उन्हें अपनी जीविका
३९. अनुशासनपर्व के कुछ श्लोक ये हैं (२२॥३३-४१)-अक्रोषना धर्मपराः सत्यनित्या दमे रताः। तादृशा साषको विप्रास्तेभ्यो दत्तं महाफलम् ॥ सांगांश्च चतुरो वेदानपीते यो हिजर्षभः। षड्म्यः प्रवृत्त कर्मभ्यस्तंहीबमुषयो विदुः॥ प्रज्ञाश्रुताभ्यां वृत्तेन शीलेन च समन्वितः । तारयेत कुलं सर्वमेकोसीह द्विजोत्तमः॥: निशम्य च गुणोपेतं ब्राह्मणं साधुसम्मतम् ॥ दूरादानाय्य सत्कृत्य सर्वतश्चापि पूजयेत् ॥ श्लोक ३३, ३६, ३८, ४१, 'षडम्यः प्रवृत्तः' पर नीलकण्ठ को टीका यों है--'अनुपदोक्तैः मधुमासवर्णनमर्यादापालनशीर्चः सह अध्ययनमागदानेभ्यः, तान्यनुष्ठातुं प्रवृत्तः इत्यर्थः।' ।
४०. न विधया केवलया तपसा वापि पात्रता । यत्र वृत्तमिमे बोने तद्धि पात्रं प्रकीर्तितम् ॥ याज्ञ० (१।२००)।
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