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पनशास्त्र का इतिहास (आप०५० सू० २।४।९।५; मनु ३।९२)। इन व्यवस्थाओं के पीछे थी सार्वभौम दया, दाक्षिण्य आदि सुन्दर मनोन भावों की अभिव्यक्ति, सभी सामाजिक वर्गो; नियमों एवं एक-दूसरे के विरोध में जाने वाली 'भावनाओं के रहते.' हुए भी एक भावना सजग थी कि एक ही प्रकाश सभी स्थानों में व्याप्त है जो निम्म-से-निम्न जन्तुओं को प्रकाशित करता रहता है और सम्पूर्ण विश्व को एक बन्धु-श्रेणी देखता है। यही आदर्श सदैव रहा है, किन्तु अब भोजन-अभाव, अधिक दामों एवं अन्न-नियन्त्रण नियमों के कारण प्राचीन दया-दाक्षिण्य-सम्बन्धी भावनाएँ विलुप्त होती जो रही हैं।
यह द्रष्टव्य है कि सभी ब्राह्मण पुरोहित नहीं थे और आधुनिक काल में भी यही बात पायी जाती है। इसी प्रकार सभी हिन्द मन्दिरों एवं तीर्थों में सभी पूजारी ब्राह्मण नहीं हैं। मन्दिरों के पूजारियों की परम्परा एवं संस्था अपेक्षाकृत पश्चात्कालीन है और आज भी ऐसे पुजारी हीन दृष्टि से देखे जाते हैं। मनु (३।१५२) में आया है कि देवलक (वह ब्राह्मण जो किसी मन्दिर की मूर्ति की पूजा करके अपनी वृत्ति चलाता है), यदि उसने तीन वर्षों तक लगातार वही कार्य किया है तो श्राद्ध में निमन्त्रित होने के लिए अयोग्य है, देव-यज्ञ में भी उसे नहीं रखा जाता। आरम्भिक काल से ही ब्राह्मणों के समक्ष यही आदर्श था कि कें दरिद्र रहें, उनका जीवन सादा और विचार उच्च रहे, वे धन-लिप्सा में न पड़ें, घे वेद एवं शास्त्रों के अध्ययन में भक्ति रखें तथा उच्च संस्कृति वाले हों और साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोण की परम्परा आगे बढ़ाते जायें। याज्ञ० (११२१३) जैसी स्मृतियों में आया है कि यदि ब्राह्मण धार्मिक दान पाने योग्य भी हो तब भी उसे दान अस्वीकार कर देना चाहिए, ऐसा करने से उसे वही लोक प्राप्त होता है जो दाता के लिए निश्चित होता है। ब्राह्मणों में इसी प्रकार के उच्च आदर्शों के संरक्षण के लिए याज्ञ० (११३३३) ने व्यवस्था दी है कि राजा गायों, सोने एवं भूमि का दान करे और 'विद्वान् ब्राह्मणों को घर दे तथा उन्हें विवाह आदि के उपकरण (कुमारियाँ, विवाह-व्यय आदि) दे। आजकल लोग बहुधा प्राचीन भारत की संस्कृति एवं साहित्यिक मर्यादा-परम्पराओं की चर्चा करते हैं। किन्तु किसने इस विशाल वैदिक एवं संस्कृत साहित्य की रचना की, उसकी रक्षा की और सहस्रों वर्षों तक उसका प्रचार-प्रसार किया ? उत्तर यही होगा कि यह कुछ ब्राह्मणों के कारण ही सम्भव हो सका, जो सहस्रों वर्षों तक प्राचीन आदों के साथ चलते रहे।
- यदि ऋग्वेद को आर्य भाषा का सबसे प्राचीन साहित्यिक स्मारक माना जाय तो यह प्रश्न हो सकता है कि किन लोगों ने इसके दस सहस्रों से अधिक मन्त्रों को अद्वितीय ढंग से सुरक्षित रखा कि कहीं भी केवल वाक्-प्रेषणीयता के रहते हुए (कानों कान आते हुए) भी कोई भी अन्तर नहीं पड़ा और एक ही पाठ सुरक्षित रहा? तो उत्तर यही होगा कि यह दुष्कर कार्य ब्राह्मणों ने ही किया। इस कार्य में ब्राह्मणों का उत्सर्ग कितना महान् रहा है, इसकी कल्पना मात्र से हमारे रोम-रोम पुलकित हो उठते हैं। ब्राह्मणों को वेद का अध्ययन उसके अंगों के साथ करना पड़ता था, जिसके पीछे कोई लाभ का उद्देश्य निहित नहीं था। वे ऐसा अपना कर्तव्य समझ कर करते थे, वे वेद का अर्थ समझाने के लिए उसे तथा अन्य अंगों को पढ़ाते थे, पहले से कोई शुल्क नहीं लेते थे। वे अपने कुल को इन्हीं वेद-वेदांगों में लगाते थे, यज्ञ करते थे और स्वयं दान करते थे। उनकी जीविका का साधन था यज्ञो एवं धार्मिक कृत्यों में पौरोहित्य करना एवं दान लेना। ये साधन विभिन्न प्रकार के, योग्यतानुकूल एवं कष्टः साध्य रहे होंगे।
___ ब्राह्मणों को कोई धार्मिक कर उगाहने का अधिकार नहीं था, जैसा कि पश्चिमी देशों में होता था। ऐंग्लिकन चर्च में पादरियों की एक लम्बी पंक्ति पायी जाती है, वैसी बात ब्राह्मणों के विषय में नहीं थी। अत ब्राह्मणों को बताया गया है कि वे अपनी जीविका के लिए राजा या धनिक व्यक्ति के पास जाय गौतम ९।६३, 'योगक्षेमार्थमीश्वरमधिगच्छेत्')। यह : द्रष्टव्य है कि बौद्धधर्म के प्रसार के पूर्व सूत्रों एवं स्मृतियों ने
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