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धर्मशास्त्र का इतिहास
पुराणों ने अपने कर्तव्य के पालन में इस बात की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया कि वेद को समझने के लिए इतिहास एवं पुराण का ज्ञान आवश्यक है। एक प्रसिद्ध श्लोक है— 'इतिहास एवं पुराण के ( अध्ययन एवं व्यवहार) द्वारा वेद को शक्तिशाली बनाना चाहिए; अल्प ज्ञान वाले व्यक्ति से वेद भय करता है, क्योंकि वह ( अल्पज्ञ ) हानि पहुँचा सकता है।" मनु का कथन है कि वे ब्राह्मण, जिन्होंने वेद का अध्ययन नियमानुकूल ( वेदाध्ययन के नियमों के अनुसार ) और उन ग्रन्थों के साथ, जो उसे शक्तिशाली बनाते हैं, किया है, शिष्ट कहलाते हैं, और वे वेद के अर्थ को प्रत्यक्ष कराने के हेतु बनते हैं। वायुपुराण में ऐसा बलपूर्वक कथित हुआ है। कि जो ब्राह्मण चारों वेदों का उनके (छः ) अंगों एवं उपनिषदों के साथ ज्ञाता है, वह विचक्षण या समझदार ब तक नहीं कहा जा सकता जब तक कि पुराणों का ज्ञाता न हो जाय।' उपनिषदों में एक ही ब्रह्म से 'आकाश' की सृष्टि के विषय में संक्षेप में संकेत मात्र है ( तै० उप० २।१) । यही बात 'तेज' ( छा० उप० ६ । २ । ३) एवं 'जल' ( छा० उ० ६।२।४) के विषय में भी है । किन्तु पुराणों में विस्तार के साथ इन तत्त्वों की उत्पत्ति एवं विलयन का विवरण पाया जाता है ( वायु ४११७, ब्रह्म १-३, अग्नि १७, ब्रह्माण्ड २३, कूर्म ११२, ४, ७, ८ आदि) । ऐतरेय ब्राह्मण एवं कठोपनिषद् में उल्लिखित हरिश्चन्द्र एवं नचिकेता की कहानियाँ ब्रह्मपुराण (अध्याय १०४ एवं १५०, हरिश्चन्द्र), सभापर्व (अध्याय १२, हरिश्चन्द्र ) एवं अनुशासन ( अध्याय ९१, नचिकेता ) में पर्याप्त विस्तार के साथ दी हुई हैं। यम एवं यमी का विख्यात कथनोपकथन ( ऋ० १०1१०) नरसिंहपुराण ( १३।६-३६ ) में विस्तारित है । विष्णुपुराण (४ | ६ | ६४ ) में पुरूरवा एवं उर्वशी की कथा आयी है और साथ ही साथ ऋग्वेद (१०।९५ ) की ऋचा की ओर भी संकेत है, किन्तु ऋचा का प्रथम चरण कुछ अशुद्ध रूप से उद्धृत है ।'
पुराण न केवल अपने को वेद को बल देने वाला कहते हैं, प्रत्युत वे इस प्रक्रिया में बहुत आगे बढ़ जाते हैं । कूर्म में आया है--' इतिहास ( महाभारत ) के साथ सभी पुराणों को एक ओर रख दो और दूसरी ओर सर्वोत्तम वेद को ; ये पुराण (वेद से) मारी पड़ जायेंगे।" महाभारत में भी ऐसा ही साधिकार व्यक्त किया गया है।
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३. इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् । बिभेत्यल्प श्रुताद्वेदो भामयं प्रहरिष्यति ।। आदिपर्व (१।२६७२६८), वायु (१२०१), पद्म (५/२/५१-५२), ब्रह्माण्ड (१।१।१७१), वसिष्ठधर्मसूत्र ( २७।६१), लघुव्यासस्मृति ( २२८६), वृद्धात्रि (अध्याय ३, पृ० ५०, जीवानन्द संस्करण प्रतरिष्यति' पढ़ता है) । स्मृतिचन्द्रिका (१, पृ० ३) ने इसे बृहस्पति का श्लोक माना है । प्रायश्चित्ततत्त्व ( पृ० ५११ ) ने इसे वसिष्ठ से उद्धृत किया है। कूर्म (१२/१९) में ऐसा आया है : 'इतिहासपुराणाभ्यां वेदार्थानुपबृंहयेत्।' रामानुज ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में इसे उद्धृत किया है और 'प्रतरिष्यति' पढ़ा है।
४. धर्मेणाधिगतो यैस्तु वेदः सपरिबृंहणः । ते शिष्टा ब्राह्मणा ज्ञेयाः श्रुतिप्रत्यक्ष हेतवः ॥ मनु ( १२ । १०९) । ५. यो विद्याच्चतुरो वेदान्सांगोपनिषदो द्विजः । न चेत्पुराणं संविद्यान्नैव स स्याद्विचक्षणः ॥ वायु ( १ | २००), स्कन्द ( प्रभासखण्ड २।९३), पद्म (५/२/५०-५१, यहाँ दूसरी अर्धाली यों पढ़ी गयी है : 'पुराणं च विजानाति यः स तस्माद्विचक्षण:'), ब्रह्माण्ड में प्रथम अर्धाली है (१।१।१७० ) ।
६. विष्णुपुराण (४|६|६४ ) में यह गद्यांश आया है : 'ततोश्वोन्मत्तरूपो जाये हे तिष्ठ मनसि घोरे तिष्ठ aafe कपटिके तिष्ठेत्येवमनेकप्रकारं सूक्तमवोचत् ।' मिलाइए ऋग्वेद (१०।१५।१) 'हये जाये मनसा तिष्ठ धोरे वचांसि मिश्रा कृणवावहै नु ।'
७. एकतस्तु पुराणानि सेतिहासानि कृत्स्नशः । एकत्र परमं वेदमेतदेवातिरिच्यते ।। कूर्म ( २०४६ । १२९ ) ।
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