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व्रतों के अंग, माहात्म्य और विस्तार
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प्राप्त हो सका था। प्राचीन यज्ञ-सम्बन्धी विधि के विरोध में जैन एवं बौद्ध धर्म आ खड़े हुए थे । सामान्य जनता को जैन एवं बौद्ध प्रभावों में पड़ने से रोकने के लिए वैदिक धर्मावलम्बी विद्वानों ने सम्भवतः व्रतों की प्रभूत महत्ता गयी है और उनके कर्ताओं को स्वर्ग एवं आध्यात्मिक फलों का प्रलोभन दिया है। यज्ञों की अपेक्षा व्रत सरल थे। व्रतों में कुछ सामान्य लोक व्यवहार भी सम्मिलित हो गये, यथा कुक्कुटी-मर्कटी-व्रत, शीतलाव्रत आदि । ब्रह्मपुराण (२९।६१) का कथन है, 'केवल एक दिन की सूर्य पूजा से उत्पन्न फल विपुल दक्षिणा वाले सैकड़ों वैदिक यज्ञों अथवा ब्राह्मणों द्वारा मी प्राप्त नहीं किया जा सकता।' पद्मपुराण ( ३।४-२७) ने जयन्तीव्रत की प्रशंसा में लिखा है कि इसके व्रती के शरीर में सभी देवता एवं तीर्थ अवस्थित हो जाते हैं। गरुड़पुराण (हेमादि, व्रत, २, १०८६९) में आया है कि कांचनपुरी-व्रत गंगा, कुरुक्षेत्र, काशी एवं पुष्कर से भी अधिक पवित्र करने वाला है । भविष्य ० ( उत्तर, ७१) का कथन है कि व्यक्ति व्रतों, उपवासों एवं नियमों की नौका द्वारा नरकों के समुद्र को बड़ी सरलता से पार कर जाता है। महाभारत एवं पद्मपुराण (५३।४-६ ) में ऐसा आया है कि मनु द्वारा व्यवस्थित कृत्य तथा वैदिक कृत्य कलियुग में नहीं किये जा सकते, अतः युधिष्ठिर से बहुत सरल, अल्पव्यय साध्य, अल्पकष्टकर किन्तु अत्यधिक फल देने वाले ऐसे मार्ग की घोषणा की गयी, जो पुराणों का सार था, यथा दोनों पक्षों की एकादशी को नहीं खाना चाहिए, जो ऐसा करता है, वह नरक नहीं जाता। भविष्यपुराण में वर्णित उमयद्वादशीव्रत के विषय में कहा गया है कि प्रभास, गया, पुष्कर, वाराणसी, प्रयाग या पूर्व एवं पश्चिम तथा उत्तर के सभी तीर्थ कार्तिक व्रत से श्रेष्ठ नहीं हैं । अनुशासनपर्व (१०६।६५-६७) में घोषित हुआ है कि उपवास से बढ़कर या उसके बराबर कोई तप नहीं है और दरिद्र व्यक्ति यज्ञों का फल उपवास से प्राप्त कर सकते हैं । वराह पुराण (३९।१७-१८) में एक प्रश्न है -- 'एक दरिद्र किस प्रकार परमात्मा की प्राप्ति कर सकता है ?' उत्तर मिला है कि वह व्रतों एवं उपवासों से ऐसा कर सकता है । लिगपुराण (पूर्वार्ध, ८३१४ ) ने व्यवस्था दी है कि जो एक वर्ष तक नक्त व्रत (केवल एक बार संध्या को खाना ) करता है और प्रत्येक पक्ष की चतुर्दशी, अष्टमी तिथियों में शिव-पूजा करता है वह सभी यज्ञों का फल पाता है और परम लक्ष्य की प्राप्ति करता है। भविष्य में आया है कि जो ब्राह्मण पवित्र अग्नियाँ (श्रीत एवं स्मार्त) नहीं रखते, वे व्रतों, उपवासों, आचरण सम्बन्धी नियन्त्रणों, भाँति-भाँति के दानों और विशेषतः विशिष्ट तिथियों पर उपवास से देवों को प्रसन्न रख सकते हैं ।
मत्स्य, ब्रह्म० एवं अन्य पुराणों का प्रमुख मन्तव्य है कम प्रयास से अधिक फल की प्राप्ति । ब्रह्मपुराण में आया है कि कलियुग में केवल 'केशव' का नाम लेने से व्यक्ति को वही फल मिलता है जो कृतयुग में गम्भीर मनोयोग, त्रेता में यज्ञों तथा द्वापर में (मूर्ति) पूजा से प्राप्त होता था । मत्स्य ० में आया है - महर्षि ऐसे यज्ञों की प्रशंसा नहीं करते जिनमें पशुओं का हनन होता है; जिनका धन तप है वे यथाशक्ति ( खेतों आदि से एकत्र ) अन्नों, मूलों, फलों, शाकों एवं जलपात्रों के दान से स्वर्ग में अटल स्थिति प्राप्त करते हैं, तप कई कारणों से यज्ञों से श्रेष्ठ है। पद्मपुराण ने तो अत्युक्ति की सीमा तोड़ दी है--' केवल हरि ही उस व्यक्ति की श्रेष्ठता बता सकते हैं जो कार्तिक में भक्ति के साथ हरि (एकादशी) के दिन एक दीप का दान करता है, या विष्णुव्रत सर्वोत्तम है और एक सौ पुनीत वैदिक यज्ञ इसके बराबर नहीं हैं।' ऐसी ही बात स्कन्दपुराण (हेमाद्रि द्वारा 'व्रत' में उद्धृत खण्ड १, पृ० ३१८, ३२१) में भी है -- देव लोग नियन्त्रण रखने वाले नियमों (अर्थात् व्रतों) से अपने स्थान प्राप्त कर सके, वे व्रतों के गुणों के कारण ही तारागण की भाँति देदीप्यमान हैं ।
वैदिक यज्ञों एवं व्रतों में विशिष्ट अन्तर भी थे। अधिकांश यज्ञों का फल था स्वर्ग प्राप्ति, किन्तु पुराणों के अनुसार अधिकांश व्रतों से इसी लोक में प्रकट फल प्राप्त होते हैं। और भी, व्रतों का सम्पादन सभी कर सकते हैं, यहाँ तक कि शूद्र, कुमारियाँ, विवाहित स्त्रियाँ, विधवाएँ तथा वेश्याएँ भी ।
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