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धर्मशास्त्र का इतिहास
दी हुई है कि दरिद्रों, अन्धों एवं निराश्रितों को भोजन दिया जाना चाहिए। अवियोगवत की चर्चा करते हुए कल्पतरु (व्रत, पृ० ७५) एवं हेमाद्रि ने कालिकापुराण से एक लम्बा उद्धरण दिया है जिसमें ऐसी व्यवस्था है कि व्रत-दिवस पर स्वादिष्ठ एवं सुगंधित अन्न एवं रुचिपूर्ण पेय दीनों, अन्धों, बधिरों आदि को देना चाहिए।" और देखिए कल्पतरु (व्रत), पृ० ३९० (हरि-व्रत),पृ०३९१ (पात्रव्रत),पृ० ३९७ (महावत), हेमाद्रि एवं कृत्य० र०, पृ० ४८१ (शिवरात्रिवत), कृत्य र०, १.० ४६१ (मित्रसप्तमी) । भविष्य (उत्तर, २२॥३३-३४) ने कहा है कि व्रत करने वाले को चाहिए कि वह अपनी सामर्थ्य के अनसार अन्धों, दीनों एवं निराश्रितों को भोजन दे। श्राद्धों, विशेषतः गयाश्राद्ध में पुराणों ने पर्याप्त व्यय करने की बात चलायी है और यथाशक्ति कम व्यय करने वालों की भर्त्सना की है (देखिए मत्स्य० १००।३६)। उभयद्वादशीव्रत पर भविष्योत्तर में आया है कि व्रती को कम व्यय नहीं करना चाहिए। और देखिए कालिकापुराण, पद्म० (६।३९।२१), मत्स्य० (६२१३४, ९१।१०९, ९५ । ३२,९८।१२) ।
व्रती को कुछ विशेष गुणों से समन्वित होना चाहिए। अग्निपुराण (१७५।१०-११) में दस गुणों का वर्णन है, यथा क्षमा, सत्य, दया, दान, शौच, इन्द्रियनिग्रह, देवपूजा, अग्निहवन, सन्तोष एवं अस्तेय। ये दस धर्म समी व्रतों के लिए हैं। देवल के अनुसार ब्रह्मचर्य, शौच, सत्य एवं आमिषवर्जन नामक चार वरिष्ठ गुण हैं। ब्रह्मचर्य का नाश पर-स्त्री को देखने, स्पर्श करने एवं बात करने से हो जाता है, किन्तु मासिक धर्म की निवृत्ति के उपरान्त आज्ञापित दिनों में अपनी पत्नी से सम्भोग करना वजित नहीं है। नारदीयपुराण (पूर्वार्ध, ११०।४८) में आया है कि सभी व्रतों में ब्रह्मचर्य की व्यवस्था है, उनमें केवल यज्ञिय भोजन ही करना चाहिए। हविष्यान्न कई प्रकार से परिभाषित है। मनु (३।२५७) ने व्यवस्था दी है कि मुनियों के योग्य भोजन (यथा नीवार), दूध, सोमरस, अनुपस्कृत (जो दुर्गधियुक्त न हो) मांस, अक्षारलवण (प्राकृतिक नमक) यज्ञिय भोजन कहे गये हैं। यद्यपि स्मृतियों में मांस (श्राद्ध कर्म में) का प्रयोग निषिद्ध नहीं है किन्तु देवलस्मृति आदि के मतानुसार व्रतों में इसका निषेध होना चाहिए। कृत्य र० (पृ० ४००) ने समयप्रदीप का लम्बा उद्धरण देकर व्रत-काल के भोजन पर प्रकाश डाला है, यथा सर्वप्रथम यव (जौ), उसकी अनुपस्थिति में वीहि (चावल), इसके अभाव में अन्य भोजन, किन्तु माष (उरद), कोद्रव, चना, मसूर, चीन एवं कपित्थ को छोड़कर। भोजन के विषय में बहुत-से पुराणों में मतभेद है, क्या खाया जाय, क्या छोड़ दिया जाय, स्पष्ट नहीं हो पाता। इसके विस्तार में हम नहीं जायेंगे। पद्म में आया है कि नक्तव्रत में छ: बात की जानी चाहिए, यथा हविष्य भोजन, स्नान, सत्य भाषण, अल्प भोजन, अग्नि-पूजन, पृथिवी-शयन। भजबल के अनुसार कांसा, मांस, मसूर, चना, कोद्रव, शाक, मधु तथा दूसरे के घर में पका अन्न वर्जित है। व्रत के दिन, हारीत के अनुसार व्रती को पतितों, पाषण्डियों, नास्तिकों से बातन हीं करनी चाहिए और न असत्य-भाषण तथा अश्लील बात कहनी चाहिए। शान्ति० (१५।३९) में आया है कि व्रती को स्त्रियों, शूद्रों एवं पतितों से बातचीत नहीं करनी चाहिए। और देखिए बृहद्योगी-याज्ञवल्क्यस्मृति (७।१४७-१४८)।
पुराणों ने तीर्थयात्राओं के सदृश व्रतों की मी महिमा गायी है। ई० पू० में ही वैदिक मागियों द्वारा किये जाने वाले व्रतों का प्रचलन समाप्त हो चुका था तथा वैदिक यज्ञों से सम्बन्धित व्रत भी बहुत कम होते थे। गृह्य एवं धर्मसूत्रों तथा मनु एवं याज्ञ० जैसी प्राचीन स्मृतियों में भी पौराणिक काल के व्रतों को महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं
१५. दीनान्धबधिरावीनां तद्दिने वानिवारितम्। कल्पयेवन्नपानं च सुमृष्टं रुच्यमात्मनः॥ हेमाद्रि (व्रत ११४४३), कृत्य र० (पृ० ४५५): प्रणम्य भोजयेद् भक्त्या वतिनश्च द्विजैः सह। कल्पयेत् भोजनं श्रेष्ठं सर्वेष्वेध तपस्विषु। दीनान्धकृपणानां च सर्वेषामनिवारितम् ॥ हे. (व्रत, २, पृ० ३८२), पात्रवत।
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