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धर्मशास्त्र का इतिहास का पाठ प्रत्येक उपचार के साथ क्रम से होना चाहिए (यथा आवाहन, भासन, पाय, मर्य, भाषमनीयक, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, अनुलेपन या गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, दक्षिणा, प्रदक्षिणा)। कुछ ग्रन्थों में इनमें प्रत्येक के साथ एक या अधिक पौराणिक मन्त्रों का भी समावेश पाया जाता है। ऐसा नहीं समझना चाहिए कि ये उपचार (विशेषतः पुष्प, गन्ध, धूप, दीप एवं नैवेद्य) वैदिक युग में नहीं थे और आगे चलकर अनार्यों से ग्रहण किये गये। ऋग्वेद (१०।१८४१२) एवं अथवं० (३।२२।४) में अश्विनी का वर्णन नील कमलों की माला से युक्त किया गया है (पुष्करस्रजा); मरुतों को भी माला-युक्त वर्णित किया गया है (ऋ० ५।५३।४)। ऋग्वेद के मन्त्रों में (३।५९।१ एवं ५) घृत के साथ हव्य देने का उल्लेख है। देवों से अपूप, पुरोडाश, घाना, दूध, दही, मधु आदि खाने की प्रार्थना की गयी है (ऋ० ३१५३।८, ३।५२।१-७, ४।३२।१६, ८।९१।२; अथर्व० १८।४।१६-२६)। यह सब मूर्ति के समक्ष नैवेद्य देने की ओर संकेत है। शतपथ ब्राह्मण (११११११११) में उपचार' शब्द 'सन्मान' अथवा सम्मान प्रकट करने की विधि के अर्थ में प्रयुक्त है। ते० आ० (१०।४०) में 'मेधा-जनन' नामक मन्त्र का उल्लेख है, जो जातकर्म के अवसर पर शिशु के कान में कहा जाता था--'सविता देव, सरस्वती देवी एवं नील कमलों की माला धारण करने वाले अश्विनीकुमार देव तुममें मेधा (बुद्धि) उत्पन्न करें।' इसके प्रमाण हैं कि गृह्य सूत्रों से बहुत पहले १६ उपचारों में बहुत से विख्यात थे, निघण्टु (३।१४) में ऐसे ४४ क्रिया शब्दों का उल्लेख है जिनका अर्थ है 'पूजा', जिनमें 'पूजयति' भी है। और देखिए शब्द 'सुपाणिः' (ऋ० ३।३३।६), जिसे निरुक्त में समझाते हुए कहा गया है कि 'पाणि' शब्द 'पण' से बना है जिसका अर्थ है सम्मान देना, लोग हाथों को जोड़कर देवों की पूजा करते हैं। अतः प्रकट है कि निरुक्त के पूर्व 'नमस्कार' पूजा करने का एक रूप था। और देखिए ऋग्वेद (३।३१।१) जिसमें 'सपर्यन्' शब्द निघण्टु द्वारा पूजयन् ' का समानार्थक माना गया है। पाणिनि (५।३।९९) और महाभाष्य से प्रकट है कि उन दिनों देवों की प्रतिमाएँ बनती थीं, बिकती थीं, जिससे कि उनकी पूजा हो।" आश्व० गृ० सू० (१२२४१७) ने व्यवस्था दी है कि जब ऋत्विक, आचार्य, दूलह, राजा. स्नातक या सम्बन्धी (श्वशुर, चाचा, मामा आदि के सदृश) को मधुपर्क देना हो तो प्रत्येक के बारे में अतिथि को आसन, पाद-प्रक्षालन के लिए जल, अय॑जल, आचमन-जल, मधु-मिश्रण तथा गाय की तीन बार घोषणा होनी चाहिए। इसी सूत्र ने एक अन्य स्थान पर गन्ध, माल्य, धूप, दीप, आच्छादन (वस्त्र) श्राद्ध के समय ब्राह्मणों को देने की बात चलायी है (४।८।१)। उपर्युक्त मन्त्रों में ही १६ में ९ उपचारों का उल्लेख हो गया है। धर्मसूत्रों के काल में ही पूजा' गौण अर्थ में होने लगी (अर्थात् बिना गन्ध, पुष्प आदि के सम्मान देना)। याज्ञ० (११२२९) ने श्राद्ध में आवा गन्ध, माल्य, धूप, दीप आदि का उल्लेख किया है। जब मूर्ति-पूजा का प्रचलन हो गया तो उपचार, जो योग्य व्यक्तियों के सम्मान एवं पूजा के लिए व्यवस्थित थे, आगे चलकर इसके साथ प्रयुक्त हो गये। प्रस्तुत लेखक के मत से यह सिद्धान्त कि पूजा एवं उपचार द्रविड़ों या अनार्यों से ग्रहण किये गये हैं, सिद्ध नहीं किया जा सकता और केवल कल्पनापरक है, वास्तव में मूर्ति-पूजा स्वदेशोद्भव विकास है। मध्य काल के लेखकों ने बड़ी सावधानी
१४. जीविकार्थे चापण्ये । पा० (५।३।९९); मौहिरण्यार्थिभिरर्चाः प्रकल्पिताः। भवेत्तासु न स्यात् । यास्त्वेताः संप्रति पूजार्थास्तासु भविष्यति। महाभाष्य। सोने एवं धन के लोभी मौर्य लोग बेचने के लिए शिव, स्कन्द की प्रतिमाएं बनाते थे, जिन्हें 'शिवक' आदि कहा जाता था। किन्तु उन्हें, जो पूजा के निमित्त प्रतिष्ठापित होती थीं और जो पुजारियों को जीविका की साधन थीं, 'शिव', 'स्कन्द' आदि कहा जाता था। महाभाष्य (पा० १३११२५) में आया है, 'काश्यपग्रहणं पूजार्थम् ।
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