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व्रत-नियमों में होम और पूजा
सामान्य नियम तो यह है कि व्रत का संकल्प प्रातःकाल होना चाहिए, किन्तु यहाँ भी विरोधी मत प्रकाशित किये गये हैं (देखिए भविष्यपुराण, उत्तर, ११।६-८)।
होम एवं पूजा में अन्तर है। प्राचीन धर्माधिकारियों के मत से वैदिक मन्त्रों के साथ होम स्त्रियों एवं शूद्रों द्वारा नहीं किया जाना चाहिए। सिद्धान्त रूप से तीन वर्ण वैदिक मन्त्रों के साथ होम कर सकते हैं, किन्तु विद्वान् ब्राह्मणों का कहना है कि कलियुग में योग्य क्षत्रिय एवं वैश्य नहीं पाये जाते। कमलाकर भट्ट जैसे लेखकों ने यहाँ तक कह डाला कि शूद्र पुराणों को नहीं पढ़ सकते, वे केवल ब्राह्मणों द्वारा उनका पारायण सुन सकते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि अधिकांश में लोग केवल पूजा करने लगे और अग्नि में होम करना कम होने लगा। कुछ लेखकों के मत से उसी देवता के लिए होम होना चाहिए जिसके अनुग्रह के लिए व्रत किया जाता है। वर्धमान आदि लेखकों के मत से व्रत में होम इष्ट देव के सम्मान में होना चाहिए या वह केवल व्याहृतिहोम होना चाहिए (होम के साथ मूः स्वाहा, मुवः स्वाहा, स्वः स्वाहा, मूर्भुवः स्वः स्वाहा)। अग्निपुराण (१७५।६०) के अनुसार सामान्य रूप से सभी व्रतों के अन्त में जप, होम एवं दान होना चाहिए। विष्णुधर्मोत्तर में व्यवस्था है कि जो उपवासव्रत करता है उसे इष्ट देव के मन्त्रों का मौन पाठ करना चाहिए, इष्ट देव का ध्यान करना चाहिए, उस देव के विषय की कथाएँ सुननी चाहिए, उसकी मूर्ति की पूजा करनी चाहिए, उसके नामों का उच्चारण करना चाहिए तथा अन्य लोगों को नाम-गायन करते हुए सुनना चाहिए।
पूर्वमीमांसा के लेखकों ने होम, याग एवं दान के अन्तर या भेद को समझाया है। शबर (जै० ४।२।२८) ने संक्षेप में कहा है-'अपना सम्पूर्ण त्याग तीनों कृत्यों में पाया जाता है, किन्तु याग वह है जिसमें इष्ट देव के निमित्त किसी वस्तु का त्याग होता है और वह मन्त्र के साथ होता है, किन्तु होम में एक बड़ी बात और है, और वह है अग्नि में किसी वस्तु को छोड़ना; दान में अपनी किसी वस्तु का त्याग करना होता है जो अन्ततोगत्वा दूसरे की हो जाती है। एक स्थान पर शबर (जै० ९।१।६) ने याग को केवल देवता की पूजा माना है (अपि च यागो नाम देवतापूजा)।
मनु (२।१७६) एवं याज्ञ० (११९९।१००, १०२) से प्रकट होता है कि देवतापूजा एवं होम में अन्तर है। देवतापूजा होम के उपरान्त होती है, जैसा कि मरीचि एवं हारीत (स्मृतिच० १, पृ० १९८ एवं स्मृतिमु०, आह्निक, पृ० ३८३ में उद्धृत) से पता चलता है। देवतापूजा के विषय में हमने इस महाग्रन्थ के द्वितीय खण्ड में देख लिया है। कुछ बाते जो वहाँ छूट गयी हैं, यहाँ दी जा रही हैं। देवपूजा की विधि में १६ उपचार होते हैं, किन्तु उनकी संख्या ३६ या ३८ तक भी है और कम भी बतायी गयी है, यथा १३, १४, १२, १० या ५। इस विषय में मतैक्य नहीं है।" ब्रह्मवैवर्तपुराण ने १६, १२ एवं ५ उपचारों की चर्चा की है। यदि कोई व्यक्ति पाँच उपचार मी न कर सके तो वह केवल दो कर सकता है, यथा चन्दन एवं पुष्प, यदि इतना भी न कर सके तो श्रद्धा मात्र पर्याप्त है (वर्षक्रियाकौमुदी, पृ० १५७ में उद्धृत कालिकापुराण)। शबर (जै० ५।१।४) के भाष्य (कम से कम चौथी शताब्दी के उपरान्त नहीं) से प्रकट है कि उपचारों का क्रम तब तक व्यवस्थित हो चुका था। व्रतार्क एवं वर्षक्रियाकौमुदी (पृ० २००-२०१) के मत से सभी ब्रतों में सामान्य रूप से पुरुषसूक्त (ऋ० १०॥९०) के प्रत्येक मन्त्र
१३. ३८ उपचारों के लिए देखिए व्रतराज पृ० ४४। एकादशीतत्त्व (पृ० १८) में ३६ उपचार उद्धृत हैं। प्रपंचसार में १६ उपचार निम्न हैं--आसनं स्वागतं पाद्यमय॑माचनीयकम् । मधुपर्काचमस्नानवसनाभरणानि च ॥ सुगन्ध सुमनोधूपदीपनवेद्यवन्दनम् । प्रयोजयेवर्चनायामुपचारांश्च षोडश॥
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