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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास प्रो० वी० एम्० आप्टे' ने ह्विटनी की बात मानी है और कहा है कि 'वृत्' से ही 'क्त' व्युत्पन्न हुआ है। उन्होंने बलपूर्वक प्रतिपादित किया है कि '' का 'वरण करना या चुनना' तथा 'रक्षण करना' या 'आवेष्टित करना' अर्थ असम्भव है। उन्होंने कहा है कि ऋग्वेद में कोई व्रत शब्द ऐसा नहीं है जिससे 'संकल्प या इच्छा, आदेश, आज्ञाकारिता अथवा निर्दिष्ट हेतु' का अर्थ प्रकट हो सके। उनका मत है कि 'वृत्' का अर्थ न केवल 'आगे बढ़ना या प्रवृत्त रहना या आरम्भ करना' है (जैसा कि ह्विटनी ने प्रतिपादित किया है), प्रत्युत इसका अर्थ 'अभिमुख होना अर्थात् घूम जाना, अपनी ओर अभिमुख होना, चतुर्दिक घूम जाना, एक ही स्थान पर परिभ्रमण करना या आगे बढ़ना' भी है, अतः 'व्रत' शब्द का अर्थ न केवल विधि, कर्म का क्रम या विधि, आचार-विधि है, प्रत्युत इसका अर्थ 'चक्राकार गति या परिभ्रमण' तथा 'वृत्ताकार मार्ग' भी है। प्रस्तुत लेखक के मत से ह्विटनी एवं प्रो० आप्टे के मत त्रुटिपूर्ण हैं। 'वत' से 'व्रत' की व्यत्पत्ति अमान्य है। उन पदों में जहां धातु 'वृत्' 'अभि', 'आ', 'नि', 'परि', 'प्र' या 'वि' नामक उपसर्गों के साथ प्रयुक्त हुई है, उनसे वृत्' के मौलिक अर्थ को निकालने में हमें सहायता नहीं मिलती, क्योंकि उपसर्ग बहुधा धातु का अर्थ ही परिवर्तित कर देते हैं, और यह सन्देहास्पद है कि 'वत' धातु अपने वास्तविक रूप में ही ऋग्वेद में 'आगे बढ़ना' (ह्विटनी के मतानुसार) के अर्थ में प्रयुक्त हुई है। यह भी नहीं माना जा सकता कि बिना उपसर्गों के प्रयुक्त 'वृत्' धातु ऋग्वेद में 'चक्राकार या वत्ताकार घमना या आगे बढ़ना' (प्रो. आप्टे के मतानसार) के अर्थ में आयी है। प्रस्तुत लेखक के मतानुसार 'वृत्' का सीधा अर्थ है 'होना, ठहरना, पालन करना।' ऋग्वेद में 'वृत्' का प्रयोग इसके आगे या पीछे बिना उपसर्ग के बहुत कम हुआ है।' प्रो० आप्टे ने आरोप लगाया है कि विद्वानों ने बहुधा व्रत के अर्थों के लिए अपने को केवल 'विधि, विधान, आदेश, यज्ञ, संकल्प, निर्दिष्ट हेतु, कर्तव्य' तक ही सीमित रखा है, उन्होंने ऋग्वेद में प्रयुक्त अर्थ 'मार्ग या वृत्ताकार मार्ग की ओर अपना ध्यान नहीं दिया है। उनके मतानुसार ऋग्वेद में वर्णित दिव्य व्रतों का अर्थ है स्वगिक पथ, दिव्य फेरे, समय समय पर स्वयं देवों द्वारा आकाश के चारों ओर फेरा लगाना, न कि किसी विशिष्ट देवता द्वारा निर्धारित पुनीत विधियों या कानून। 'ओरायन' (पृ० १५४) में लिखित तिलक के इस निर्देश पर कि ऋग्वेद में वर्णित 'ऋत का पथ' राशि-चक्र की विस्तृत मेखला है, जिसका अतिक्रमण ज्योतिष्मान् तारागण कमी नहीं करते, प्रो० आप्टे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि ऋग्वेद के ऋत शब्द का अर्थ है राशि-चक्र की मेखला।' किन्तु प्रसिद्ध वैदिक विद्वानों को यह सिद्धान्त अमान्य है। परन्तु प्रस्तुत लेखक के मत से ऋग्वेद में 'ऋत' तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है, जिनमें एक है 'प्रकृति की गति' या 'अखिल ब्रह्माण्ड में नियमित सामान्य विधा या व्यवस्था।' 'वह पथ जिसके द्वारा आदित्यों का दल ऋत को पहुँचता है' (ऋ० १२४११४) या 'ऋत का चक्र, जिसमें १२ तीलियाँ (१२ राशियाँ या मास) हैं, बिना थके लगातार आकाश में चक्कर लगाते रहते हैं , (ऋ० १।१६४।११)-ये उदाहरण प्रथम अर्थ के लिए पर्याप्त हैं। किन्तु ऋत के ये अर्थ व्रत के अर्थ पर कुछ २. देखिए डकन कालेज रिसर्च इंस्टीच्यूट, पूना का बुलेटिन, तृतीय खण्ड, पृष्ठ ४०७-४८८। ३. स्वर्भानोरध यदिन्द्र माया अवो दिवो वर्तमाना अवाहन्। १० ५।४०।६; रथं वामनुगायसं य इषा वर्तते सह। न चक्रमभि बाधते। ऋ० ८।५।३४; नीचा वर्तन्त उपरि स्फुरन्त्यहस्तासो हस्तवन्तं सहन्ते। ऋ० १०॥३४।९। । ४. Annals of the B. O. R. I. Silver Jubilee Volume, PP. 55-56. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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