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________________ अध्याय १ ऋग्वेद में व्रत व्रत शब्द की गणना संस्कृत के उन शब्दों में होती है, जिनका प्रचलन सहस्रों वर्ष पुराना है। 'व्रत' शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ-सम्बन्धी विकास के विषय में विद्वानों के बीच गम्भीर मतभेद रहे हैं। यहाँ पर बहुत ही संक्षेप में उनका विवरण उपस्थित किया जायगा। _ 'सेंट पीटर्सबर्ग कोश' में 'व्रत' की उत्पत्ति 'वृ' (वृञ् वरणे, वरण करना, चुनना) से मानी गयी है, तथा उस कोश में इस शब्द के महत्त्वपूर्ण अर्थ इस प्रकार हैं--(१) संकल्प, आदेश, विधि, निर्दिष्ट व्यवस्था; (२) वशता, आज्ञापरता, सेवा; (३) स्वामित्व अथवा रिक्थ; (४) व्यवस्था, निर्धारित उत्तराधिकार, क्षेत्र; (५) वृत्ति, व्यापार, आचारिक कर्म, प्रवृत्ति में संलग्नता, आचार अथवा रीति; (६) धार्मिक कार्य, उपासना, कर्तव्यता; (७) कोई अनुष्ठान, धार्मिक या तपस्या-सम्बन्धी कर्म या आचरण-सेवन, संकल्प, पुनीत कर्म; (८) सामान्य रूप से संकल्प, निश्चित हेतु; (९) अन्य विशिष्ट अर्थ। मैक्समूलर ने इसकी व्युत्पत्ति 'वृ' से की है, जिसका अर्थ है 'रक्षण करना', और प्रतिपादित किया है कि इसका प्रारम्भिक अर्थ इस भाव में था, जिसे हम आवेष्टित, रक्षित, पृथक् रूप से रक्षित के अर्थ में लेते हैं, आगे चलकर इसका अर्थ हुआ निर्णीत, निश्चित, विधि (कानून), विधान और पुनः कालान्तर में अर्थ-विकास हुआ 'आधिपत्य या सत्ता।' ह्विटनी ने मैक्समूलर की व्युत्पत्ति को असन्तोषजनक मानकर उसे सेंट पीटर्सबर्ग के कोश से निकाल दिया और घोषित किया कि उन्हें 'वृ' (वरण करना) से इसकी व्युत्पत्ति करना अमान्य है। उन्होंने यह भी कहा कि 'वृ' से संकल्प, अनुशासन (आदेश) अर्थ नहीं निकलता, केवल 'वरण करना या अधिक मान देना' उपयुक्त ठहरता है। किन्तु उन्होंने यह स्वीकार किया है कि 'वरण करने' एवं 'अनुशासन' में सम्बन्ध अवश्य है। उन्होंने विरोध उपस्थित किया कि 'त' का आगम या प्रत्यय के रूप में प्रयोग बहुत ही कम होता है, और कहा कि यदि कोई तुल्यार्थक शब्द है तो वह है मर्त' जो 'मृ' (मरना) से बना है। उन्होंने 'व्रत' का 'वृत्' (वृतु वर्तने, प्रवृत्त रहना या प्रारम्भ करना या आगे बढ़ना) से व्युत्पादन अधिक अच्छा माना है। यद्यपि उन्होंने यह माना है कि 'वृत्' से 'अ' प्रत्यय के साथ 'व्रत' की व्युत्पत्ति अपवाद रूप में ही है। उन्होंने सोचा कि वज' एवं 'द' शब्द उनकी व्युत्पत्ति को सँभाल लेते हैं और कहा कि 'व्रत' शब्द ऋग्वेद में गति-सम्बन्धी क्रियापदों, यथा--'चर', 'सश्च' या 'सच्' के साथ बहुधा आता है। १. देखिए JBBRAS, खण्ड २९ (१९५४), पृष्ठ १-२८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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