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________________ मूल लेखक का वक्तव्यांश 'धर्मशास्त्र का इतिहास' के तृतीय खण्ड की भूमिका लिखते समय मैंने यह विश्वास प्रकट किया था कि इस विषय से सम्बन्धित समस्त अवशिष्ट सामग्री का समाहार एक ही खण्ड में कर दिया जायगा। परन्तु कार्यारम्भ होने पर वास्तविकता का अनुभव हुआ । पुस्तक के प्रथम तीन खण्डों को मैंने जिस ढंग एवं स्तर पर प्रस्तुत किया था, उसी के अनुरूप एक ही खण्ड में बचे हुए विषयों का सर्वाङ्ग निरूपण मुझे असंभव सा लगा। इसके अतिरिक्त बढ़ती हुई अवस्था के कारण शारीरिक शक्ति भी क्षीण हो चली थी, परिणामतः प्रथम तीन खण्डों को मैंने जिस तत्परता एवं कौशल के साथ कुछ ही वर्षों में समाप्त कर दिया था, वैसा कर पाना अब संभव न था । अतः मैं अनिच्छा होते हुए भी अवशिष्ट सामग्री को दो खण्डों में प्रकाशित करने का निर्णय किया। कागज एवं कुशल कारीगरों के अभाव के कारण प्रस्तुत खण्ड लगभग तीन वर्षों तक प्रेस में पड़ा रहा। इस खण्ड में आठ प्रकरण हैं -- पातक, प्रायश्चित्त, कर्मविपाक, अन्त्येष्टि, आशौच, शुद्धि, श्राद्ध और तीर्थयात्रा । नुशास्त्रियों के लिए ये विषय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इन विषयों पर लिखते समय फ्रेलर के 'गोल्डेन बाऊ' की भांति ही प्राचीन भारत में प्रचलित विश्वासों, परिपाटियों एवं संस्कारों का वर्णन करने की मेरी बड़ी इच्छा थी । परन्तु मैंने अपने इस मोह का दृढ़ता से संवरण किया और वह भी दो विशिष्ट कारणों से । प्रथम कारण तो यह था कि पुस्तक का आकार अत्यधिक बढ़ गया था; और फिर मैंने यह भी सोचा कि प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत में प्रचलित परिपाटियों एवं विश्वासों की तुलना अन्य स्थानों की तत्कालीन परम्पराओं से करना भ्रममूलक होगा। फेलर ने अपनी पुस्तक में मानव-सभ्यता की आदिम अवस्था में प्रचलित विश्वासों का निरूपण किया है। मुझे ऐसा लगा कि इस प्रकार की तुलनात्मक प्रक्रिया के द्वारा पाठकों में यह भ्रम हो सकता है कि प्राचीन एवं मध्य कालीन भारत सभ्यता एवं संस्कृति के क्षेत्र में आदिम अवस्था में था; जब कि सर्वविदित है कि उस समय भारत की संस्कृति का सर्वोच्च धवल ध्वज फहर रहा था, यद्यपि उस समय भी अति प्राचीन काल से चली आयी हुई परम्पराएँ किसी-न-किसी रूप में जीवित थीं। अनेकों अत्याधुनिक समाजों में आज भी वे परम्पराएँ अक्षुण्ण बनी हुई हैं। फ्रांस की रानी जिस कक्ष में प्रथम बार अपने पति की मृत्यु का समाचार सुनती थी, एक वर्ष तक उस कक्ष से बाहर नहीं निकलती थी । अठारहवीं शताब्दी के अंत तक इंग्लैण्ड में अभागिनी वृद्धाओं को चुड़ैल समझ कर मृत्यु दण्ड दे दिया जाता था; जब कि भारतवर्ष में लगभग दो हजार वर्ष पूर्व मनु ने जादू, टोना इत्यादि के लिए केवल दो सौ पणों का सामान्य दण्ड निर्धारित किया था । धर्मशास्त्र के विभिन्न अवयवों से सम्बन्धित तथ्यों का पर्यवेक्षण, संग्रह, वर्गीकरण एवं व्याख्या करना ही मेरा उद्देश्य रहा है और मैंने विषयसामग्री को, उसकी सारी सम्पूर्णता के साथ, निष्पक्ष होकर प्रस्तुत करने का प्रयास किया है (यद्यपि ब्राह्मण कुल में जन्मने के कारण अचेतन मन में उद्भूत कुछ पूर्वाग्रहों अथवा संस्कारगत विश्वासों से अपने को अलग नहीं कर पाया हूँ) । प्रस्तुत पुस्तक के प्रणयन में, जहाँ एक ओर मेरा प्रयास भारतीय संस्कृति की निरन्तरता, उसके विकास क्रम एवं परिवर्तनों को रूपायित करने का रहा है, वहीं दूसरी ओर अतीत और वर्तमान के सम्बन्ध तथा संभाव्य परिवर्तनों की ओर संकेत करने का भी प्रयास किया गया है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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