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________________ २०७२ धर्मशास्त्र का इतिहास हो गये हैं, चाण्डाल समझा जाना चाहिए (उन्होंने प्रायश्चित्त कर लिया हो तब भी ) और संन्यासच्युत हो जाने के उपरान्त उनकी उत्पन्न सन्तानों को चाण्डालों के साथ रहना चाहिए । १३वीं शताब्दी में यही कठोर व्यवहार पैठन के सन्त ज्ञानेश्वर एवं उनके भाइयों के साथ किया गया था। ऐसे संन्यासच्युत व्यक्ति को आरूढपतित भी कहा गया है ( पराशरमाधवीय, २ भाग १, पृ० ३७३ ) । कुछ विशिष्ट व्यक्तियों, अस्थि- जैसे गन्दे पदार्थों (मनु ५/८७ ), रजस्वला नारियों, बच्चा जनने के उपरान्त कुछ दिनों तक नारियों एवं कुत्तों, ग्रामशूकरों, मुर्गों, कौओं आदि जीवों के छूने पर शुद्धि के लिए विस्तृत नियम बने हुए हैं। स्थानाभाव से हम उनका उल्लेख नहीं करेंगे। कुछ वचन उदाहरणार्थ दे दिये जाते हैं । गौतम ( १४/२८ ) ने व्यवस्था दी है कि पतित, चाण्डाल, सूतिका ( जच्चा), उदक्या (रजस्वला), शव, स्पृष्टि (जिसने इनको छू लिया है), तत्स्पृष्टि (जिसने उस स्पर्श करनेवाले को छू लिया हो) को छूने पर वस्त्र के साथ स्नान कर लेना चाहिए । यही बात मनु (५।८४) एवं याज्ञ० ( ३।३०) ने भी कही है। प्राय० वि० ( पृ० ४९५-४९९ ) ने इस प्रश्न पर विचार किया है कि स्पर्श में प्रत्यक्ष स्पर्श एवं अप्रत्यक्ष स्पर्श दोनों सम्मिलित हैं कि नहीं और अन्त में यह निष्कर्ष निकाला है कि दोनों प्रकार के स्पर्श स्पर्श ही हैं। उसने आपस्तम्बस्मृति के आधार पर कहा है कि यदि एक ही डाल पर कोई ब्राह्मण एवं चाण्डाल बिना एक दूसरे को स्पर्श किये बैठे हों तो ब्राह्मण केवल स्नान द्वारा शुद्ध हो सकता है । प्राय० प्रकरण ( पृ० ११०) ने याज्ञ० का हवाला देकर कहा है कि चाण्डाल, पुक्कस, म्लेच्छ, भिल्ल एवं पारसीक तथा महापातकियों को छूने पर वस्त्र के सहित स्नान करना चाहिए। षट्त्रिंशन्मत ने कहा है- "बौद्धों, पाशुपतों, लोकायतिकों, नास्तिकों, विकर्मस्थों (जो निषिद्ध या वर्जित कर्म करते हैं) को छूने पर सचैल (वस्त्र सहित) जल में प्रविष्ट हो जाना चाहिए। चैत्य वृक्ष ( जिसके चारों ओर चबूतरा बना हो), चिति (जहाँ शव की चिता जलायी जाती है या जहाँ अग्निचयन के श्रौत कृत्य के लिए ईंटों की वेदिका बनायी जाती है), यूप ( यज्ञ-संबंधी स्तम्भ, जिसमें बाँधकर पशु बलि दी जाती है), चाण्डाल, सोम-विक्रेता को छू लेने पर ब्राह्मण को वस्त्रसहित जल में प्रवेश कर जाना चाहिए।"" संवर्त (प्राय० वि०, पृ० ४७२-४७३) ने मोची, धोबी, वेण (जो ढोलक आदि बजाता है, मनु १०।१९ एवं ४९), धीवर ( मछली मारने वाले), नट आदि को छूनेवाले को आचमन करने को कहा है। शातातप का कथन है कि यदि द्विज का कोई अंग ( सिर के अतिरिक्त) रजक (रॅगरेज), चर्मकार (मोची), व्याध ( बहेलिया ), जालोपजीवी ( धीवर), निर्णेजक (धोबी), सौनिक (कसाई), ठक (ठग), शैलूष (नट), मुखेभग (जो मुख में संभोग करने की अनुमति देता है), कुत्ता, सर्वगा निता ( वह वेश्या जो सभी वर्गों को अपने यहाँ स्थान देती है ), चक्री (तेल निकालने वाला), ध्वजी (शौंडिक या मद्य वेचनेवाला), वध्यघाती ( जल्लाद), ग्राम्यशूकर, कुक्कुट (मुर्ग) से छू जाय तो अंग-प्रक्षालन करके आचमन करना चाहिए। यदि इन लोगों से सिर छू जाय तो स्नान कर लेना चाहिए। इस सिलसिले में यह ज्ञातव्य है कि हेमाद्रि ने ( पृ० ३८) गरुड़पुराण एवं ( पृ० ३१६) पराशर को उद्धृत कर ग्राम की १६ जातियों का उल्लेख किया है जिन्हें स्पर्श करने, बोलने एवं देखने के मामलों में चाण्डाल कहा जाता है। " देवल (हेमाद्रि, प्रायश्चित्त, पृ० ३१२ ) का कथन १९. तत्र याज्ञवल्क्यः । चाण्डालपुक्कसम्लेच्छभिल्लपारसिकादिकान् । महापातकिनश्चैव स्पृष्ट्वा स्नायात् सचेलकः ॥ प्राय० प्रक० ( पृ० ११० ) । अपरार्क ( पृ० ९२३) ने इस श्लोक को वृद्धयाज्ञवल्क्य का ठहराया है। त्रिशन्मतम् । बौद्धान्पाशुपतांश्चैव लोकायतिकनास्तिकान् । विकर्मस्थान् द्विजान् स्पृष्ट्वा सचैलो जलमाविशेत् ॥ प्राय० प्रक० ( पृ० ११०) एवं स्मृतिचन्द्रिका (१, पृ० ११८ ) । २०. चर्मारं रजकं वेणं धीवरं नटमेव च । एतान् स्पृष्ट्वा द्विजो मोहादाचामेत् प्रयतोऽपि सन् ॥ संवर्त (प्राय० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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