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________________ पारमा १०७० धर्मशास्त्र का इतिहास सर्प आदि की हत्या पर विभिन्न प्रायश्चित्तों की व्यवस्था दी है, जिन्हें हम यहाँ नहीं दे रहे हैं। संवर्त (१०), पैठीनसि आदि स्मृतियों ने ग्राम्य एवं आरण्य (बनैले) पशुओं का अन्तर बताया है। ऋषियों ने प्राणियों के साथ ही वनस्पतियों की हत्या (काटने) पर विशेष विचार किया है। यदि कोई व्यक्ति आम, पनस आदि वृक्षों या लता-गुल्मों को यज्ञों एवं कृषि के उपयोग में लाने के अतिरिक्त काटता था तो उसे सौ वैदिक मन्त्रों के जप का प्रायश्चित्त करना पड़ता था (मनु ११११४२, याज्ञ० ३।२७६, वसिष्ठ १९।११-१२)। स्पष्ट है, ऋषियों को आध्यात्मिकता के साथ ही मानवकल्याण के लिए वृक्षों, लता-गुल्मों आदि का उपयोग भली भाँति ज्ञात था। यह अवलोकनीय है कि जब किसी को कोई वेश्या, या वानर या गदहा या कुत्ता या शृगाल याऊँट या कौआ काट लेता था तो उसे दर्द सहने के साथ-साथ जल में खड़े होकर प्राणायाम करना पड़ता था और शुद्धि के लिए घी पीना पड़ता था (मनु ११११९९, याज्ञ० ३।२७७ एवं वसिष्ठ २३।३१)। पराशर (५।१-९) ने भेड़ियों, कुत्तों एवं शृगालों के काटने पर शुद्धि के लिए विस्तृत नियमों की व्यवस्था दी है, यथा-स्नान, गायत्री का जप आदि। र्य (दूसरे की पत्नी के साथ व्यभिचार) उपपातक माना जाता था (मन १११५९ एवं याज्ञ० ३।२३५) । इसमें गुरुतल्पगमन, गुरु-पत्नी एवं चाण्डाल की स्त्रियों के साथ संभोग नहीं सम्मिलित है (मनु ११।१७०१७२, १७५, १७८; याज्ञ० ३।२३१-२३३, वसिष्ठ २०१५-१७ एवं २३।४१) । आप० ध० मू० (१।१०।२८।१९) उस पुरुष व्यभिचारी के प्रति अति कठोर है जो अपनी पत्नी के साथ किये गये शपथ-व्रत से च्यत होता है। ऐसे व्यक्ति को गदहे का चर्म बाल के भाग को ऊपर करके पहनना पड़ता था और सात घरों से भिक्षा माँगते समय कहना पड़ता था कि "उस व्यक्ति को भिक्षा दीजिए जिसने अपनी पत्नी के प्रति वचन-भंग किया है।" इसी प्रकार उसे छ: मास तक करना पड़ता था। आप० ध० सू० (१।१०।२८।२०) ने इसी प्रकार भ्रष्ट चरित्र वाली पत्नी के लिए भी व्यवस्था दी है। उसे कई मासों (छः मासों) तक १२ रात्रि वाला कृच्छ प्रायश्चित्त करना पड़ता था। एक स्थान (२।१०।२७।११) पर ऐसा कहा गया है कि जो ब्राह्मण अपनी जाति की विवाहित स्त्री के साथ व्यभिचार करे तो उसे जाति-च्युत व्यक्ति के लिए व्यवस्थित प्रायश्चित्त का १/४ भाग करना पड़ता था। गौतम (२२।२९-३०), ३४) ने ऐसे विषय में सामान्यतः दो वर्षों वाला और विद्वान् ब्राह्मण की पत्नी के साथ व्यभिचार करने पर तीन वर्षों वाला प्रायश्चित्त निर्धारित किया है। और देखिए मिताक्षरा (याज्ञ० ३।२६५) जहाँ महापातकों के अतिरिक्त अन्य व्यभिचार सम्बन्धी प्रायश्चित्तों का वर्णन है। हम उनकी चर्चा नहीं करेंगे। यदि कोई स्त्री स्वजाति या किसी उच्च जाति के पुरुष के साथ व्यभिचार करती है तो उसे समान-अपराधी पुरुष के सदृश ही प्रायश्चित्त करना पड़ता है (मनु १११७८ एवं बृहस्पति)। किंतु यदि कोई स्त्री नीच जाति के पुरुष से व्यभिचार करती है तो उसे दूसरे प्रकार का प्रायश्चित्त करना पड़ता है (देखिए ऊपर, वसिष्ठ २१।१-५ एवं संवर्त १६७-१७२) । बृहद्यम (४।४८) ने प्रतिलोम जातियों के व्यभिचार को महापाप कहा है, किन्तु अनुलोम-व्यभिचार से शुद्धि पाने के लिए विभिन्न प्रायश्चित्तों की व्यवस्था की है। वात्यता (उचित समय पर उपनयन संस्कार न करने की स्थिति)-जो व्यक्ति उचित समय पर उपनयन संस्कार नहीं करता उसे वात्य या पतितसावित्रीक कहा जाता है। देखिए आश्व० गृ० सू० (१।१९।५-७), आप० ध० सू० (१।१।१।२२-२६), बौधा० गृ० सू० (३।१३।५-६), वसिष्ठ० (११।७१-७५), मनु (२।३६-३९) एवं याज्ञ० (१।३७-३८)। इस संबंध में प्रात्यस्तोम एवं उद्दालक व्रत (वसिष्ठ १११७६-७९ एवं गौतम १९१८) नामक प्रायश्चित्त कुछ ग्रन्यों द्वारा निर्धारित हैं और मनु (११।१९१=विष्णु ५४।२६-२७ = अग्नि० १७०।८-९) ने ३ कृच्छों एवं पुनरुपनयन के सम्पादन की व्यवस्था दी है। वसिष्ठ (११२७७) ने उद्दालक व्रत का यों वर्णन किया है-"दो मासों तक जौ की लपसी पर रहना चाहिए, एक मास तक दूध पर, आधे मास तक आमिक्षा पर, आठ दिनों तक घी पर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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