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अध्याय ४
विशिष्ट पापों के विशिष्ट प्रायश्चित्त अब हम महापातकों, उपपातकों एवं अन्य प्रकार के दुष्कृत्यों के विभिन्न प्रकारों के लिए व्यवस्थित प्रायश्चित्तों का विवेचन उपस्थित करेंगे। स्मृतियों में एक ही प्रकार के पाप के लिए कई प्रकार के प्रायश्चित्तों की व्यवस्था है, अतः सभी मतों का समाधान करना दुष्कर है। टीकाएँ एवं मिताक्षरा तथा प्रायश्चित्तविवेक जैसे निबंध विशिष्ट प्रायश्चित्तों की व्यवस्था अन्य परिस्थितियों की जाँच करके देते हैं, अर्थात् वे 'विषयव्यवस्था' पर ध्यान देते हैं। हम इस ग्रन्थ में न तो सभी दुष्कृत्यों का वर्णन कर सकेंगे और न सभी प्रायश्चित्तों की व्याख्या ही कर सकेंगे। शब्दकल्पद्रुम (भाग ३) में प्रायश्चित्तविवेक से उपस्थापित जो व्याख्या है, केवल उसी में कतिपय पाप-कृत्यों, उनके लिए प्रायश्चित्तों, प्रतिनिधि रूप में दी जानेवाली गौओं एवं धन तथा इनके स्थान पर दक्षिणा आदि के विषय में ३२१ से ३६४ पृष्ठों तक वर्णन है। आज ये प्रायश्चित्त प्रयोग में नहीं लाये जाते, केवल गोदान, दक्षिणा, जप आदि का प्रचलन मात्र रह गया है। हम केवल विशिष्ट प्रायश्चित्तों का ही वर्णन उपस्थित कर सकेंगे और आगे के अध्याय में सभी प्रायश्चित्तों की संक्षिप्त व्याख्या देंगे।
महापातकों के लिए प्रायश्चित्त-शंख (१७।१-३) ने चार महापातकों के लिए निम्न प्रायश्चित्त निर्धारित किये हैं--महापातकी को दिन में तीन बार स्नान करना चाहिए; वन में पर्णकुटी (घास-फूस पत्तियों आदि से झोपड़ी) बना लेनी चाहिए; पृथिवी पर सोना चाहिए; पर्ण (पत्ती), मूल, फल पर ही रहना चाहिए; ग्राम में भिक्षाटन के लिए प्रवेश करते समय महापातक की घोषणा करनी चाहिए; दिन में केवल एक ही बार खाना चाहिए।
प्रकार १२ वर्ष व्यतीत हो जाते हैं तो सोने का चोर, सुरापान करने वाला, ब्रह्महत्यारा एवं व्यभिचारी (माता, बहिन, पुत्रवधू, गुरुपत्नी आदि से व्यभिचार करने वाला) महापाप से मुक्त हो जाता है। विष्णु० (३४।१) ने माता, पुत्री, पुत्रवधू के साथ संभोग करने को अतिपाप कहा है और उसके लिए (३४।२) अग्निप्रवेश से बढ़कर कोई अन्य प्रायश्चित्त नहीं ठहराया है। यही बात भविष्य०, हारीत एवं संवर्त (प्राय० वि० पृ० ४३) ने भी कही है। किन्तु मनु (११।५८), याज्ञ० (३।२२७) आदि कुछ स्मृतियों ने मातृगमन को महापातक (गुरुतल्पगमन) एवं पुत्री तथा पुत्र-वधू के साथ गमन को गुरु-शय्या अपवित्र करने के समान माना है (मनु ११।५८ एवं याज्ञ० ३।२३३-२३४) ।
१. एवमादीन्यन्यानिकर्षापकर्षप्रतिपादकवचनानि ब्राह्मणादिजातत्व-वृत्तस्थावृत्तस्थत्व-वेदाग्न्यादियुक्तत्वायुक्तत्व-कामाकामकृतत्व-व्यवस्थया व्याख्येयानि । प्राय० वि० (पृ० २२०)।
२. नित्यं त्रिषवणस्नायी कृत्वा पर्णकुटी वने। अधःशायी जटाधारी पर्णमूलफलाशनः॥प्रामं विशेच्च भिक्षार्थ स्वकर्म परिकीर्तमन् । एककालं समश्नीयावर्षे तु द्वादशे गते ॥ हेमस्तेयी सुरापश्च ब्रह्महा गुरुतल्पगः । व्रतेनतेन शुध्यन्ते महापासकिनस्त्यिमे ॥ शंख (१७.१-३); अपरार्क (पृ० १०-५३-५४); परा० मा० (२, भाग १, पृ० ३२०-३२१ एवं प्राय० प्रकाद्वारा उद्धृत)।
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