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पृ० ३६१ ) ने इसका उल्लेख किया है- 'थिद के गाँव में एक रम्य स्थल है जहाँ सात धाराएँ मिलती हैं । '
सप्तर्षि - वि० ध० सू० ८५ । ३९ ( यहाँ का श्राद्ध अत्यंत
पुण्यदायक है) डा० जाली ने इसे सतारा माना है । सप्तर्षिकुण्ड -- (लोहार्गल के अन्तर्गत ) वराह० १५१।४६ ( जहाँ हिमालय से सात धाराएँ गिरती हैं) । सप्तसागर लिङ्ग -- ( वारा० के अन्तर्गत ) स्कन्द ० ४।३३।१३६ ।
सप्तसामुद्रक - - ( कुब्जाम्रक के अन्तर्गत ) वराह० १२६।९१ ।
सप्तसामुद्रक कूप -- ( मथुरा के अन्तर्गत ) वराह० १५७।१२ ।
धर्मशास्त्र का इतिहास
सप्तसारस्वत--- - ( कुरुक्षेत्र में ) जहाँ मुनि मंकणक ने अपने हाथ को कुश 'की नोकों से छेद डाला था और जब उससे वनस्पतीय तरल पदार्थ बहने लगा तो वे हरकुल हो नाचते लगे थे । वन० ८३ । ११५, शल्य० ३८।४-३१ (जहाँ सातों नाम वर्णित हैं), कूर्म ० २।३५।४४-७६ (मंकणक की गाथा ), पद्म० १।२७।४, वाम० ३८।२२-२३ (मंकणक की गाथा ), नारद० २।६५।१०१-१०४ (साती नदियों के नाम दिये गये हैं) ।
सप्तवती --- (नदी) भाग० ५।१९।१८ । समङ्गा --- ( मधुविला नामक नदी ) वन० १३४।३९४०, १३५१२ (जहाँ इन्द्र वृत्रवध के पाप से मुक्त हुए थे) । समङ्गा नाम इसलिए पड़ा क्योंकि यह टेढ़े अंगों को समान बनाती है । अष्टावक्र के अङ्ग इसमें स्नान करने से सीधे हुए थे। समन्तपंचक - - ( यह कुरुक्षेत्र है) आदि० २1१-५ (क्षत्रियों के रक्त से बने पाँच कुण्ड जो पाँच पवित्र सरोवरों में परिवर्तित हो गये थे ) शल्य० ३७/४५, ४४५२, ५३१-२ ( ब्रह्मा की उत्तर वेदी), पद्म ० ४।७।७४ ( ' स्यमन्त' पाठ आया है), ब्रह्माण्ड ० ३।४७।११ एवं १४, वाम० २२१२० ( 'स्थमन्त' ), ५१-५५ ( सर को सन्निहित कहा गया है जो चारों
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ओर से आधा योजन है) किन्तु वाम ० के अनुसार यह पाँच योजन है । समुद्रकूप -- ( प्रयाग के अन्तर्गत) मत्स्य० १०६।३० । समुद्रेश्वर-- ( वारा० के अन्तर्गत ) लिङ्ग० (ती० क०, पृ० १०५ ) ।
समस्रोत -- (मन्दार के अन्तर्गत ) वराह० १४३।२४-२६ । सम्मूर्तिक-- ( वारा० में एक तीर्थ ) पद्म० ११३७६ । सम्पीठक -- ( मथुरा के अन्तर्गत ) वराह० १५७।३७ ॥ संवर्तक-- ( वारा० के अन्तर्गत ) कूर्म० ११३५।६ । संवर्तवापी वन० ८५।३१, पद्म० १।३९।२९ । संवर्तेश्वर -- ( वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (ती०
क०, पृ० ९९) ।
संविद्यतीर्थ - - वन० ८५।१, पद्म० १।३९।१ । सरक --- ( कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत ) वन० ८३।७५-७६,
पद्म० १।२६।७६, नारदीय० २२६५/६२-६३ । सरस्तम्भ --- ( देवदारु वन के पास ) अनु० २५|२८| सरयू --- (नदी) ऋ० ४|३०|१८, ५१३३९, १०
६४/९ ( सरस्वती, सरयु एवं सिन्धु एक साथ वर्णित हैं)। इन ऋचाओं में 'सरयु' शब्द आया है, किन्तु संस्कृत साहित्य में 'शरयू' या 'सरयू' आया है (मत्स्य ० २२।१९, वायु० ४५।९४, नारदीय० २।७५१७१, रघुवंश १३।९५ एवं १०० ) । मत्स्य ० ( १२१ । १६-१७) एवं ब्रह्माण्ड ० २।१८।७० ) में आया है कि सरयू वैद्युतगिरि के चरण में स्थित मानस सरोवर से निकली है। अयोध्या सरयू पर स्थित है ( रामा० २।४९।१५)। सरयू हिमालय से निकली है (वायु० ४५ १९४ ) । इसका जल ' सारख' कहलाता था ( काशिका, पाणिनि ६।४।१७४ में आया है'सरय्वां भवं सारवम् उदकम् ' ) । चुल्लवग्ग (एस् ० बी० ई०, जिल्द २०, पृ० ३०२ ) में यह भारत की पाँच बड़ी नदियों में व्यक्त है, किन्तु मिलिन्द - प्रश्न में यह दस बड़ी नदियों में एक कही गयी है किन्तु दोनों स्थानों पर इसका नाम 'सरभू' है ) । देखिए तीर्थप्र० ( पृ० ५०० ५०१ ) जहाँ यह विष्णु के बायें अंगूठे से निकली हुई है और घर
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