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तीर्थसूची
लव की राजधानी कही गयी है। देखिए मार्शल का लेख, जे० आर० ए० ए०, १९०९, पृ० १०६६१०६८ एवं एपि० इण्डि०, जिल्द ११, पृ० २० । डॉ० स्मिथ (जे० आर० ए० ए०, १८९८, पृ० ५२०-५३१) ने श्रावस्ती को सहेत महेत न मानकर नेपाल की भूमि में उसे नेपालगंज के पास माना है। ब्रह्म० (७१५३) में आया है कि इसका नाम इक्ष्वाकु कुल के श्रावस्त के नाम पर पड़ा है। श्रीकुञ्ज -- ( सरस्वती के अन्तर्गत ) पद्म० १।२६।१९, वन० ८३।१०८।
श्रीकुण्ड -- वन० ८२८६ ( अब इसका नाम लक्ष्मीकुण्ड है जो वाराणसी में है) लिंग० (ती० क०, पृ० ६२) ।
श्रीक्षेत्र -- ( जगन्नाथपुरी) इसके विषय में गत अध्याय में सविस्तर लिखा गया है।
श्रीनगर -- (१) (कश्मीर की राजधानी है) इसका इतिहास बहुत लम्बा है। राज० (१।१०४) के अनुसार अशोक ने ९६ लाख घरों के साथ श्रीनगरी का निर्माण किया। स्टीन ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि कनिंघम (ऐं० जि० पृ० ९३ ) ने अशोक की श्रीनगरी को आधुनिक श्रीनगर से तीन मोल ऊपर वितस्ता के दाहिने तट पर स्थित आधुनिक पन्द्रेथान नामक गाँव के पास माना है । पन्द्रेथान ( कल्हण का पुराणाविष्ठान ) तख्त-एसुलेमान पहाड़ी के चरण में है। प्रवरसेन प्रथम ने प्रवरेश्वर मन्दिर स्थापित किया और प्रवरसेन द्वितीय ने छठी शताब्दी के आरम्भ में नयी राजधानी का निर्माण कराया । ह्वेनसांग ने इस नयी नगरी ( प्रवरपुर ) का उल्लेख किया है। देखिए 'बील' का लेख, बी० आर० डब्लू० डब्लू०, जिल्द १, पृ० ९६, १४८ एवं १५८ तथा ऐं० जि०, पृ० ९५-९६ । आइने अकबरी (जिल्द २, पृ० ३५५ ) का कथन है कि कोह-ए-सुलेमान श्रीनगर के पूरब है । अलबरूनी (जिल्द १, पृ० २०७ ) का कथन है कि अद्दिष्ठन (कश्मीर की राजधानी अधिष्ठान )
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झेलम के दोनों किनारों पर निर्मित है । डल झील का, जो श्रीनगर के पास है और संसार के रम्यतम स्थानों में एक है, वर्णन इम्पी० गजे० इण्डि०, जिल्द ११, पृ० १२४-१२५ में है; (२) (अलकनन्दा के बायें किनारे पर गढ़वाल जिले में यह एक बस्ती है) यू०पी० गजेटियर, जिल्द ३६, पृ० २०० । श्रीपर्णी -- ( यहाँ दान अत्यंत फलदायक होता है )
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मत्स्य० २२।४९।
श्रीपर्वत -- ( या श्रीशैल ) (१) (कुर्नूल जिले में कृष्णा स्टेशन से ५० मील दूर कृष्णा नदी की दक्षिण दिशा में एक पहाड़ी) यहाँ पर बहुत-से लिंग हैं जिनमें प्रसिद्ध मल्लिकार्जुन ( लिंग० १।९२।१५५) भी है जिसकी गणना १२ ज्योतिलिङ्गों में होती है। लिंग० (१।९२।१४७-१६६ ) में कुछ ज्योतिलिङ्गों का उल्लेख है। देखिए वन० ८५।१८-२० ( यहाँ महादेव उमा के साथ बिराजते हैं), वायु० ७७ २८, मत्स्य ० १३ | ३१ ( यहाँ देवी 'माधवी' कही गयी है), १८१।२८ (आठ प्रमुख शिवस्थानों में एक ), १८८१७९ ( रुद्र द्वारा जलाया गया बाणासुर का एक पुर यहाँ गिर पड़ा था ), पद्म० १।१५।६८६९ ( मत्स्य० अ० १८८ की कथा यहाँ भी है), अग्नि० १३३।४ ( गौरी ने यहाँ लक्ष्मी का रूप धारण करके तप किया था ) । पाजिटर ( पृ० २९० ) ने अग्नि की व्याख्या ठीक से नहीं की है। कूर्म ० २२०/३५ ( यहाँ श्राद्ध अत्यन्त फलदायक होता है), २।३७।१३-१४ ( यहाँ पर धार्मिक आत्मघात की अनुमति है ), पद्म० १ ३९ १७, ४२० १५ ( योगियों एवं तपस्वियों का यह एक बड़ा स्थल है) । बार्ह ० सू० (३|१२४) के अनुसार यह शाक्त क्षेत्र है । मालतीमाधव ने इसकी कई बार चर्चा की है । देखिए एपि० इण्डि०, जिल्द २०, पृ० ९, जिल्द ४, पृ० १९३ ( जहाँ विष्णुकुण्डिन विक्रमेन्द्र वर्मा का चिक्कुल्ल दानपत्र है ) । नागार्जुन कोण्डा के तीसरी शताब्दी के शिलालेख में श्रीपर्वत का उल्लेख है (एपि० इण्डि०, जिल्द २०, पृ० १ एवं २३ ); (२)
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