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अध्याय ३ प्रायश्चित्त; इसका उद्भव, व्युत्पत्ति एवं अर्थ वैदिक साहित्य में दो शब्द प्रयुक्त हुए हैं। प्रायश्चित्ति एवं प्रायश्चित्त और दोनों का अर्थ भी वहाँ एक ही है, यद्यपि प्रायश्चिति अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन लगता है। तैत्तिरीय संहिता (२।१।२।४, २।१।४।१, ३॥१॥३॥२-३, ५।१।९।३ एवं ५।३।१२।१) में प्रायश्चित्ति शब्द बार-बार आया है। यहाँ पाप का प्रश्न नहीं उठाया गया है।' इस शब्द का अर्थ है 'कोई ऐसा कार्य करना जिससे किसी अचानक घटित घटना या अनर्थ (अनिष्ट) का मार्जन हो जाय, यथा-उखा (उबालने या पकाने के पात्र) का टूट जाना या सूर्य की दीप्ति का घट जाना।' त० सं० (५।३।१२। १) में यह शब्द पाप के प्रायश्चित्त के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। स्पष्ट है, अति प्राचीन ग्रन्थों में इस शब्द के अर्थ के दो रूप थे । कौषीतकि ब्रा० (६।१२) में आया है-"लोगों का कथन है कि जो कुछ यज्ञ में त्रुटि या अतिरेक घटित होता है उसका प्रभाव ब्रह्मा पुरोहित पर पड़ता है और वह तीन वेदों से उसका मार्जन करता है या ठीक करता है। यह शब्द अथर्ववेद (१४।१।३०), वाज० सं० (३९।१२, निष्कृति से मिलता-जुलता), ऐत० ब्रा० (५।२७), शत० बा० (४।५७।१, ७/१२४।९, ९।५।३।८ एवं १२।५।१।६) आदि में भी आया है। प्रायश्चित्त शब्द कौषीतकि ब्रा० (५।९।६।१२) में और अन्यत्र भी आया है। आश्व० श्री० (३।१०।३८) एवं शांखा. श्री० (३।१९।१) में क्रम से प्रायश्चिति एवं प्रायश्चित्त शब्द आये हैं।' पारस्कर गृह्य० (१३१०) में प्रायश्चित्ति का प्रयोग हुआ है। जैमिनि में कई स्थानों (६१३७, ६।४।१०, ६।५।४५ एवं १२।३।१६) पर प्रायश्चित्त शब्द आया है। शबर ने इनमें से अन्तिम सूत्र की (जै० १।३।१६) व्याख्या करते हुए प्रायश्चित्त के दो प्रकार व्यक्त किये हैं-(१) यज्ञ की विधि में प्रमाद से या यज्ञोपकरण के गिरने से जो गड़बड़ी होती है उसके कुप्रभाव को सुधारने के लिए कुछ का प्रयोग होता है तथा (२) कुछ का प्रयोग किसी कृत्य के सहायक भागों के रूप में, अर्थात् उनका प्रयोग कभी इसलिए होता है कि व्यक्ति ने जो व्यव
१. असावावित्यो न व्यरोचत तस्मै देवाः प्रायश्चिसिमच्छन् । तै० सं० (२३११२।४ एवं २।११४१); यदि भिवेत तैरेव कपालः संसृजेत्सव ततः प्रायश्चित्तिः। तै० सं० (५।१।९।३); एष वै प्रजापति सर्व करोति योऽश्वमेधेन मगते सर्व एव भवति सर्वस्य वा एषा प्रायश्चित्तिः सर्वस्य भेषजम् । तै० सं० (५।३।१२।१)।
२. यद यशस्य स्खलितं वोल्वणं वा भवति ब्रह्मण एव तत्प्राहुस्तस्य त्रय्या विद्यया भिषज्यति। कौषीतकि मा० (६।१२)।
३. विध्यपराधे प्रायश्चितिः। आश्व० श्री० (३३१०); विध्यपराधे प्रायश्चित्तम्। अर्थलोपे प्रतिनिधिः । शां० श्री० (३११९३१); विध्यपरा प्रायश्चितं दोषनिघातार्थ विधीयतेऽनाजाते विशेष ध्यानं नारायणस्य तज्जपेज्याहोमाश्च हननार्पमिति। बैखानसश्रौतसूत्र (२०११)। नारायण की टीका में आश्व० श्री० (३३१०) की व्याख्या यों है-"पिहितस्याकरणेऽन्ययाकरणे च प्रायश्चित्तिः कर्तव्या। प्रायो विनाशः चित्तिः सन्धानम्। विनष्टसंधानं प्रायचितिरित्युक्तं भवति।"
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