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तीर्थसूची
१४९१ है और इससे निकली हुई नदियां बहुत कम हैं तथा शुष्केश्वर--(वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (ती० क०, उनके नाम पुराणों आदि में कई प्रकार से आये हैं। पृ० ११८)। देखिए डा० राय चौधरी का 'स्टडीज' आदि, पृ० शूरिकतीर्थ-(बेसइन के पास आधुनिक सुपारा) ११३-१२०।
वन० ८५।४३ (जहाँ परशुराम रहते थे), ८८।१२ शुक्रतीर्थ-- (गोदावरी के उत्तरी तट पर) ब्रह्म० ९५।- (यहाँ जमदग्नि की नदी थी), ११८५८-१०, शान्ति० १, मत्स्य० २२।२९।
४९।६७ (जमदग्नि के पुत्र परशुराम द्वारा समुद्र शुक्रेश्वर--(वारा० के अन्तर्गत) कूर्म० ११३५।१५, से पुनः निकाला गया स्थान), अनु० २५।५०, लिंग० ११९२-९३, नारद० २।५०१६३।
हरिवंश, विष्णु पर्व० ३९।२९-३१ (अपरान्त में शुक्लतीर्थ-(भडोच से १० मील उत्तर-पूर्व नर्मदा शूर्पारक नगर ५०० धनुष लम्बा एवं ५०० इधु चौड़ा
के उत्तरी तट पर) कूर्म० २।४११६७-८२, मत्स्य: था और परशुराम ने इसे एक बाण छोड़कर स्थापित १९२।१४, स्कन्द० ११२।३।५। देखिए गत अध्याय का किया था), ब्रह्माण्ड० ३।५८।१७-१८ तथा ३२-३३, प्रकरण नर्मदा, जहाँ शुक्ल तीर्य में राजर्षि चाणक्य भाग० १०१७९।२०, ब्रह्म० २७१५८ (अपरान्त का उल्लेख हुआ है; चाणक्य एवं शुक्लतीर्थ के सम्बन्ध देशों में शूरिक का नाम सर्वप्रथम आया है)। नासिक के विषय में देखिए इम्पी० गजे. इण्डि०, जिल्द अभिलेख, संख्या १० में 'शोपरिग' शब्द आया है २३, पृ० १२८ एवं बम्बई गजे०, जिल्द ११, (बम्बई गजे०, पृ० ५६९ जि० १६); नानाघाट पृ० ५६८-५६९; पद्म० १।१९।२-१५ (यहाँ अभिलेख सं०९ (ए० एस० डब्ल० आई०. जिल्द ५, राजर्षि चाणक्य द्वारा प्राप्त सिद्धि का उल्लेख प०६४) में गोविन्ददास सोपारयक नाम आया है।
सुप्पारक जातक (सं० ४६३, जिल्द ४, पृ० ८६, शुण्डिक--(कश्मीर में तीर्थ) नीलमत० १४५९। सम्पादक कॉवेल) में आया है कि भरुकच्छ एक शुद्धेश्वर--(वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (ती० क०, बन्दरगाह था और उस देश .. नाम भरु था। पृ० १२२)।
यह सम्भव है कि ओल्ड टेस्मः का 'ओफिर' शुतुनो--(पंजाब की सतलज, संस्कृत ग्रंथों की शब्द शूर्पारक है, यद्यपि यह मत विवादास्पद है।
शतदु) ऋ० ३३३३३१, १०७५।५। यह यूनानी ऐं जि० (पृ० ४९७-४९९ एवं ५६१-५६२) में हुपनिष या हुफसिस (ऐं इण्डि०, पृ० ६५) है तर्क उपस्थित किया गया है कि ओफिर या सोफिर जो कि भारत में सिकन्दर के बढ़ने की अन्तिम सीमा (बाइबिल के सेप्टुजिण्ट अनुवाद में) सौवीर का देश थी। यह कैलास की दक्षिणी उपत्यका से निकलती है न कि शूर्पारक का, जैश के बहुत से विद्वान् कहते है और कभी मानसरोवर से निकलती थी। पाजिटर हैं। टालेमी ने इसे 'र्स पारा' कहा है। कुछ प्रसिद्ध (पृ. २९१) का कथन है कि प्राचीन काल में यह विद्वान् कहते है वि ओफिर टालेमी का ऐंबीरिया आज की भांति व्यास से नहीं मिली थी, प्रत्युत स्वतन्त्र अर्थात् आभीर है (पृ० १४०) । देखिए जे० आर० ए० रूप से बहती थी, और उन दिनों यह सूखी भूमि से एस्०, १८९८, पृ० २५३ एवं जे० बी० बी० आर० बहती थी जो आजकल हक्र या 'घग्गर' नाम से ए० एस०, (जिल्द १५, पृ० २७३) जहाँ क्रम प्रसिद्ध है, जो इसके आधुनिक बहाव से ३० से ५० से विवेचन एवं शारक पर लम्बी टिप्पणी दी
मील दक्षिण है। शुष्कनदी--(वारा० के अन्तर्गत असि नामक नदी) शूलघात---(कश्मीर में) देखिए नीलकुण्ड के अन्तमत्स्य० १८२।६२, लिंग० (ती० क०, पृ० ११८)। र्गत।
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