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________________ १४८२ धर्मशास्त्र का इतिहास वितस्ता-गम्भीरा-संगम-स्टीन-स्मृति, पृ० १०१ एवं विद्यातीर्ष-(इसे सन्ध्या भी कहते हैं) वन० ८४१५२, ११०। पद्म० १३२।१६। वितस्ता-मधुमती संगम-नीलमत० १४४२। विद्याधरेश्वर--- (वारा० के अन्तर्गत) कूर्म० ११३५। वितस्ता-सिन्धु-संगम---(मतभेद के रूप से अत्यंत पुनीत) ११, पद्म० ११३०।१४। राज० ४१३९१, वन० ८२।९७-१००, नीलमत० विवर--(पर्वत) देवल (ती० क०, पृ० २५०) । क्या ३९४-३९५। इन दोनों नदियों का संगम कश्मीर यह विदूर है ? के लोगों के लिए उतना ही पुनीत है जितना प्रयाग विशेश्वर-(वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (ती० क०, का संगम। वितस्तात्र--(कश्मीर में वेरीनाग धारा के उत्तर-पश्चिम विधीश्वर--(वारा के अन्तर्गत) लिंग० (ती० कल्प०, में एक मील दूर विथवुतुर नामक धारा) राज. पृ० ११६)। १।१०२-१०३ । ऐसा कहा जाता है कि अशोक ने विनशन--(जहाँ अम्बाला एवं सरहिन्द की विशाल यहाँ बहुत-से स्तूप बनवाये थे । जनश्रुति है कि मरुभूमि में सरस्वती अन्तहित हो जाती है। यह इस धारा से वितस्ता की मुख्य धारा निकली है। नाम ब्राह्मण युग में विस्यात था; वन० ८२।१११, देखिए स्टीन-स्मृति, पृ० १८२। १३०१३-४, शल्य० ३७।१ (शूद्राभीरान् प्रति द्वेषाद् विदर्भासंगम ---(गोदा० के अन्तर्गत) ब्रह्म० १२१।१।। यत्र नष्टा सरस्वती), कूर्म० २।३७।२९, ब्रह्माण्ड ० एवं २२, हेमचन्द्र की अभिधानचिन्तामणि (पृष्ठ ३।१३।६९। मनु० (२।२१) ने इसे मध्य देश की १८२) के अनुसार विदर्भा कुण्डिनपुर का एक पूर्वी सीमा माना है। देवल (ती० कल्प०, पृ० २५०) नाम है। ने इसे सारस्वत तीर्थों में परिगणित किया है। महाविविशा-(१) (पारियात्र से निकली हुई नदी) ब्रह्म भाष्य (जिल्द १, पृ० ४७५, पाणिनि २१४१० पर २७।२९, ब्रह्माण्ड० २।१६।२८, मार्क० ५४।२०।। एवं जिल्द ३, पृ० १७४, पाणिनि ६।३।१०९ पर) देखिए 'वेत्रवती' आगे; (२) रघुवंश (१५।३६) में ने इसे 'आदर्श' कहा है और आर्यावर्त की पूर्वी सीमा वर्णित एक नगर (राम ने शत्रुध्न के पुत्रों, शत्रुघ.ती माना है। काशिका (पाणिनि ४।२।१२४) ने आदर्श एवं सुबाहु को मधुरा एवं विदिशा की नगरियां को एक जनपद कहा है। विनशन की वास्तविक पहदी); मेघदूत (१।२४) के अनुसार विदिशा दशार्ण चान अज्ञात है, जैसा कि ओल्ठम ने कहा है, किन्तु देश की राजधानी थी। मालविकाग्निमित्र (५।१) ओल्ढम ने कल्पना की है कि यह सिरसा से बहुत में आया है कि अग्निमित्र विदिशा नदी पर आनन्द दूर नहीं है (जे० आर० ए० एस०, १८९३, का उपभोग कर रहा था और आगे चलकर कहा पृ० ५२) । गया है कि वैदिशस्य (वैदिश का अर्थ है विदिशा विनायक-कुण्ड--(वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (ती० पर स्थित एक नगर) अग्निमित्र को पुष्यमित्र ने पत्र कल्प०, पृ० ५३) । भेजा था। देखिए लगभग ६०९ ई० के कटच्छूरि विनायकेश्वर-(वारा० के अन्तर्गत) स्कन्द० ४१३३॥ बुद्धराज द्वारा दिये गये वड़नेर के दानपत्र (वैदिश- १२६ । वासकाद् विजय-स्कन्धावारात्, एपि० इण्डि०, विन्ध्य-(भारतवर्ष की सात महान् पर्वत श्रेणियों में जिल्द १२, पृ० ३०)। एक) वन० ३१३३२, भीष्म० ९।११, वायु० ७७१३४, विद्याधर-(गण्डकी एवं शालग्राम के अन्तर्गत) वराह० मत्स्य० १३॥३९, भाग० ५।१९।१६। यह टॉलेमी १४५। ६२ (पृ० ७७) का ओइण्डियन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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