SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 460
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्यसूची १४५३ दित्य ने इसे निर्मित कराया। राज० (४।१९४-१९५) ७-९ (यह गंगा सहित सभी नदियों से उत्तम है और ने विष्णु की चाँदी एवं सोने की प्रतिमाओं का उल्लेख राजा नृग की नदी है), १२१३१६, विष्णु० २।३।११। किया है। अधिकांश पुराणों में 'तापी' एवं पयोष्णी' अलग-अलग पर्जन्येश्वर-(वाराणसी के अन्तर्गत) लिंग० (ती० उल्लिखित हैं, यथा--विष्णु ० २।३।११, मत्स्य० ___ क०, पृ० ११५)। ११४।२७, ब्रह्म० २७१३३, वायु० ४५।१०२, वाम० पर्णाशा-(या वर्णाशा) (१) (राजस्थान में बनास १३।२८, नारदीय० २।६०।२९, भाग० १०१७९।२०, नदी, जो उदयपुर राज्य से निकलकर चम्बल में मिलती पद्म०४।१४।१२ एवं ४।१६।३ (यहाँ मुनि च्यवन है) सभा०६५।६। पर्णाशा का अर्थ है 'पर्ण अर्थात का आश्रम था)। देखिए 'मूलतापी' । वन० (१२१॥ पत्तों की आशा', वायु० ४५।९७, वराह० २१४।४८, १६) में आया है कि पयोष्णी के उपरान्त पाण्डव मत्स्य० ११४१२३, सभा० ९।२१; (२) पश्चिमी लोग वैदूर्य पर्वत एवं नर्मदा पहँचे। हण्टर ने (इम्पी० भारत की एक नदी, जो कच्छ के रन में जाती है। गजे० इण्डि०, जिल्द २०, पृ० ४१२) कहा है कि प्रथम नाम उषवदात के नासिक शिलालेख (सं० पयोष्णी बरार की पूर्णा नदी है जो गविलगढ़ की १०) में उल्लिखित है। संख्या १४ में 'बनासा' पहाड़ियों से निकलकर तापी में मिलती है। नलशब्द आया है। देखिए इन उल्लेखों के लिए बम्बई चम्पू (६।२९) में आया है--'पर्वतभेदि पवित्रं... गजे०, जिल्द १६, १०५७७, जिल्द ७,पृ० ५७ तथा हरिमिव... वहति पयः पश्यत पयोष्णी।' जिल्द ५, पृ०२८३। पयोष्णी-संगम--(यहाँ श्राद्ध अनन्त फल देता है) पक्ष्णी -(१) (पंजाब की आधुनिक रावी) ऋ० मत्स्य० २२।२३। ५।५२।९, ७।८८८-९ (सुदास अपने शत्रु कुत्स पयस्विनी--(नदी) भाग० ७।१९।१८, ११।५।३९ एवं उसके मित्रों से इसी नदी पर मिला था), (जो लोग इस पर एवं अन्य दक्षिणी नदियों पर रहते ८७४।१५, १०७५।५ । निरुक्त (९।२६) का हैं वे वासुदेव के बड़े भक्त होते हैं)। कयन है कि इरावती का नाम परुष्णी है। (२) पवनस्थ-हद--वन० ८३।१०५। (गोदावरी की सहायक नदी) ब्रह्म० १४४।१ एवं पाण्डवेश्वरक-(नर्मदा के अन्तर्गत) पद्म० १११८१५८, २३। मत्स्य० १९१,६१ परणी-संगम--(गोदावरी के अन्तर्गत) ब्रह्म० १४४१ पाण्डकूप--ब्रह्माण्ड० ३।१३।३७ (समुद्र के पास), श्राद्ध के लिए उपयुक्त । पर्वतास्य-- (वाराणसी के अन्तर्गत) कूर्म. १३५।८, पाण्डपुर-देखिए पौण्डरीकपुर। पम० ११३७।८। पाण्डर--वायु० ४५।९१ (एक छोटा पर्वत)। पशुपतीश्वर-- (वाराणसी के अन्तर्गत) लिंग० (ती. पाण्डिसह्य-(विष्णु के. गुह्य क्षेत्रों में एक) नृसिंह० क०, पृ० ९३)। ६५।९ (ती० क०, पृ० २५१)। पयोदा-(नदी) ब्रह्माण्ड० २११८१७०, वायु० ४७१६७ पाण्डुविशालातीर्थ--(गया के अन्तर्गत) वायु०७७।९९, (पयोद सर से निकली हुई)। ११२।४४-४८ (यहाँ 'पाण्डुशिला' पाठ आया है); पयोष्णी--(ऋक्ष या विन्ध्य से 'निकली हुई नदी) ती० क० (पृ० १६८) ने वायु को उद्धृत करते हुए विलसन (विष्णुपुराण के अनुवाद में, जिल्द २, पृ० . इसे 'पाण्डुविशल्या' पढ़ा है। १४७) ने कहा है कि यह पैन-गंगा है, जो विदर्भ पाणिल्यात--पद्म० १।२६।८४, वन० ८३।८९ (पाणिमें वरदा या वर्धा से मिलती है। वन०८५।४०,८८१४, खात)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy