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तीर्थसूची
१४०५ शृंगा, पद्मावती, कुमुद्वती, उज्जयिनी। और देखिए असिकुण्ड--(मथुरा के अन्तर्गत) वराह० १६३।१३; लिंग० ११९२१७-८ एवं ब्रह्म० १९४।१९ (कृष्ण के गुरु वराह के अध्याय १६६ में असिकुण्ड की विशेषता सान्दीपनि अवन्तिपुर में रहते थे)। मेघदूत (१९३०) का वर्णन किया गया है। ने उज्जयिनी को विशाला कहा है, काशीखण्ड ७।९२। असिक्नी-(एक नदी, आधुनिक निनाव) ऋ० ८।२०।और देखिए 'महाकाल' के अन्तर्गत।
२५, १०७५।५ । निरुक्त (९।२६) का कथन है कि अविघ्नतीर्ष-(गोदावरी के उत्तरी तट पर) ब्रह्म इसका नाम काले रंग के पानी के कारण पड़ा; ११४।२५।
आगे चल कर इसका नाम चन्द्रभागा हुआ। अविमुक्त-(काशी) वन० ८४१७८-८०, विष्णु० ५। यूनानियों ने इसे असेक्निज कहा है। देखिए ३४१३० एवं ४३।
भागवत०५।१९।१८। अविमुक्तेश्वर-(वाराणसी में एक लिंग) लिग० असित-(पश्चिम में एक पर्वत) वन० ८९।११-१२ ११९२।६ एवं १०५, नारदीय० २।४९।५३-५५, (इस पर्वत पर च्यवन और कक्ष सेन के आश्रम थे)। (जहाँ मुर्गों को सम्मान दिया जाता है)।
असिता-(एक नदी जहाँ योगाचार्य असित निवास करते अशोकतीर्थ-(सूपरिक) वनपर्व ८८।१३।
थे, श्राद्ध के लिए एक उपयुक्त स्थल) वायु० अश्वतीर्थ--(१) (कान्यकुब्ज से बहुत दूर नहीं) वन० ७७।३८, ब्रह्माण्ड ० ३।१३।३९ ।
९५।३, अनु० ४।१७, विष्णु० ४।७।१५ (जहाँ असित गिरि-(जहाँ योगाचार्य असित रहते थे) ऋचीक ने गाधि को उसकी कन्या सत्यवती को प्राप्त ब्रह्माण्ड० ३।३३।३९ । करने के लिए दहेज के रूप में १००० घोड़े दिये अस्तमन-(मथुरा के अन्तर्गत) वराह० (तीर्थकल्प० थे)। कालिका० ८५।५१-५७; (२) (नर्मदा के पृ० १९१) । अन्तर्गत) मत्स्य० १९४१३, पद्म० २१।३; (३) अस्थिपुर--(कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत) पद्म० १।२७।६२, (गोदावरीपर) ब्रह्म०८९।४३ (जहाँ पर अश्विनी- यह थानेश्वर के पश्चिम और औजस घाट के दक्षिण है। कुमार उत्पन्न हुए थे)।
यहीं महाभारत में मारे गये योद्धाओं के शरीर एकत्र अश्वत्थतीर्थ-~कूर्म० २।३५।३८(जहाँ नारायण यशिरा करके जलाये गये थे। देखिए ए० एस० आर०, जिल्द
के रूप में निवास करते हैं) (स्थान स्पष्ट नहीं है। १४, पृ० ८६-१०६ एवं ऐं० जि०, पृ० ३३६, अश्वमेष--(प्रयाग के अन्तर्गत) अग्नि० १११।१४। जहाँ यह वर्णित है कि हनसांग के समक्ष बहुत सी अश्वशिर--(नल की गाथा में) वन० ७९१२१।। हडडियाँ प्रदर्शित की गयी थीं। अश्विनी--अनु० २५।२१ (देविका नदी पर)। अश्मन्वती--(नदी) ऋ० १०५३।८। आश्व० गृ० सू० अश्विनोस्तोर्य- (कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत) वन० ८३।१७, (११८।२-३) ने व्यवस्था दी है कि इस मंत्र का पूर्वार्ध पद्म० १।२६।१५।
तब प्रयुक्त होता है जब नवविवाहिता कन्या नाव पर अश्वीश्वर-(वाराणसी के अन्तर्गत) लिंग० (तीर्थ- चढ़ती है और उत्तरार्ध तब प्रयुक्त होता है जब वह ___ कल्प०, पृ० ५२)
नदी पार कर चुकती है और उतर जाती है। दे ने इसे अश्वोतोर्य-(नर्मदा के अन्तर्गत) पद्म० ११२१।३०। आक्सश नदी मान है किन्तु ऐसा मानने के लिए कोई अष्टवक्र-(हरिद्वार से चार मील दूर) अनु० २५४४१, उपयुक्त तर्क नहीं है। देखिए दे, पृ० १२।
अन्मपृष्ठ--(गया का एक पवित्र प्रस्तरखण्ड जिसे अब असि---(वाराणसी के अन्तर्गत एक नाला। इसे शुष्क प्रेतशिला कहते हैं) अनु० २५।४२। नदी भी कहते हैं)।
अहः-वनपर्व ८३११००।
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