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________________ १४०४ धर्मशास्त्र का इतिहास अरुणीश-(वाराणसी के अन्तर्गत) ती० कल्प०, पृ०६०। उल्लेख किया है। नारदीय० (२६६।४) का कथन है कि अरुन्धतीवट-वन० ५।८४१४१, पम० ११३२।६। जब गंगा पृथ्वी पर उतर आती है और भगीरथ के रथ अरणा-सरस्वतीसंगम-(पृथूदक के उत्तर-पूर्व तीन मील का अनुसरण करने लगती है तो यह अलकनन्दा कह की दूरी पर स्थित) पद्म० ११२७३९, शल्य० ४३। लाती है। भागवत० ४।६।२४ एवं ५।१७।५। भागी३०-३१ एवं ४२, वाम० ४०१४३। रथी देवप्रयाग में अलकनन्दा से मिल जाती है और अर्कक्षेत्र-यह कोणार्क है। दोनों के संयोग से गंगा नामक धारा बन जाती है। अर्कस्थलकुण्ड-(मथुरा के अन्तर्गत) वराह० १५७।११ नारदीय० २।६७१७२-७३ में आया है कि भागीरथी एवं १६०।२०। एवं अलकनन्दा बदरिकाश्रम में मिलती हैं। इम्पीअर्ध्यतीर्थ-गरुड़० ११८११७। रियल गजेटियर आव इण्डिया, जिल्द १५, पृ० ६० के अर्जुन-(पितरों का तीर्थ) मत्स्य० २२।४३। मत से अलकनन्दा के साथ अन्य नदियों के पांच पुनीत अर्जुनीया-(नदी) देवल (ती० कल्प०, पृ० २४९)। संगम हैं, यथा-भागीरथी के साथ (देवप्रयाग), नन्द प्रो० के० वी० आर० आयंगर (ती० कल्प०, पृ० प्रयाग, कर्णप्रयाग (पिण्डर नदी का संगम), रुद्रप्रयाग २८३) ने दे (पृ० ११) का अनुसरण करते हुए इसे (मन्दाकिनी का संगम) एवं विष्णुप्रयाग। देखिए उ० प्र० बाहदा कहा है, किन्तु ये दोनों नाम पृथक् रूप से गजेटियर (गढ़वाल), जिल्द ३६, पृ० २ एवं १४०। वर्णित हैं। अलितीर्य-(नर्मदा के अन्तर्गत) अर्धचन्द्र-(मथुरा के अन्तर्गत) वराह० १६९।३।। अलाबुतीर्थ-(विरज के अन्तर्गत) ब्रह्म० ४।६। अर्वकील-(सरस्वती-अरुणा-संगम के निकट दर्भी द्वारा कूर्म० २।४२।३७ । बसाया गया) वन ८३६१५३-१५७। अलेश्वर-देखिए ब्रह्मेश्वर। अर्बुद--(अरवली श्रेणी में आबू पर्वत) वन० ८२॥ अवकीर्ण-(कुरुक्षेत्र एवं सरस्वती के अन्तर्गत) वाम० ५५-५६ (यहाँ वसिष्ठ का आश्रम था)। मत्स्य० ३९।२४-३५ (बक दाल्भ्य की गाथा, उसने धृतराष्ट्र २२॥३८, पद्म० ११२४१४, नारद० २१६०।२७, अग्नि० से भिक्षा मांगी किन्तु धृतराष्ट्र द्वारा भर्त्सना पाये जाने १०९।१०। यह जैनों की पाँच पवित्र पहाड़ियों में एक पर सम्पूर्ण धृतराष्ट्र-देश को पृथूदक की आहुति बना है, अन्य चार हैं शत्रुञ्जय, समेत शिखर, गिरनार डाला। शल्य० ४१११, पम० ११२७।४१-४५ । वहाँ एवं चन्द्रगिरि। यह टालमी का अपोकोपा (पृ० दर्भी को चार समुद्रों को लाते हुए वर्णित किया गया है। ७६) है। यहाँ पर एक अग्निकुण्ड था जिससे मालवा अवधूत-(वाराणसी के अन्तर्गत) लिंग० (तीर्थकल्प०, के परमार वंश के प्रतिष्ठापक योद्धा परमार निकले थे। पृ० ९३)। देखिए एपि० इण्डि०, जिल्द ९, १०१०एवं जिल्द अवटोदा--(नदी) भागवत० ५।१९।१८। १९, अनुक्रमणिका पृ० २२। अवन्ति--(१) (वह देश जिसकी राजधानी उज्जयिनी अर्बुदसरस्वती-(पितरों की पवित्र नदी) मत्स्य थी) पाणिनि ४।१।१७६, रघुवंश ६।३२, सभापर्व २२॥३८। ३१।१०, उद्योग० १६६।६; (२) अवन्ती (पारिमलकनन्दा-आदि० १७०।२२ (देवों के बीच गंगा का यात्र पर्वत से निकली हुई नदी), वायु० ४५।९८, यही नाम है)। वायु० ४१।१८, कूर्म० ११४६।३१, मत्स्य० ११४१२४, ब्रह्माण्ड० २।१६।२९; (३) विष्णु० २।२।३६ एवं २।८।११४ के मत से यह गंगा की (मालवा की राजधानी उज्जयिनी) ब्रह्म० ४३।२४, चार धाराओं में एक है और समुद्र में सात मुख होकर अग्नि० १०९।२४, नारदीय० २।७८१३५-३६ । कतिमिल जाती है। आदि० १७०।१९ ने सात मुखों का पय नाम-विशाला, अमरावती, कुशस्थली, कनक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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