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________________ जगन्नाथ-माहात्म्य १३८१ १४)।" उत्कल देश में पुरुषोत्तमतीर्थ नाम से एक तीर्थ अति विख्यात है क्योंकि इस पर विभु जगन्नाथ का अनुग्रह है (४२।३५-३७)। पुरुषोत्तम का वहाँ निवास है अतः उत्कल में जो लोग निदास करते हैं वे देवों की भाँति पूजित होते हैं। अध्याय ४३ एवं ४४ में इन्द्रद्युम्न की गाथा है, जिसने मालवा में अवन्ती (उज्जयिनी) पर राज्य किया था। वह अति पुनीत (धार्मिक), विद्वान एवं अच्छा राजा था और सभी वेदों, शास्त्रों. महाकाव्यों पुराणों एवं धर्मशास्त्रों के अध्ययन के उपरान्त इसी निष्कर्ष पर पहुँचा था कि वासुदेव सबसे बड़े देव हैं। वह अपनी राजधानी उज्जयिनी से एक विशाल सेना, भृत्यों, पुरोहितों एवं शिल्पकारों को लेकर दक्षिणी समुद्र के किनारे पर आया, वासुदेव क्षेत्र को, जो १० योजन लंबा एवं ५ योजन चौड़ा था, देखा और वहीं शिबिर डाल दिया। पुराने समय में उस समुद्र तट पर एक वटवृक्ष था, जिसके पास पुरुषोत्तम या जगन्नाथ की एक इन्द्रनीलमयी प्रतिमा थी जो बालुकावृत हो गयी थी और लतागुल्मों से घिरी हुई थी। राजा इन्द्रद्युम्न ने वहाँ अश्वमेध यज्ञ किया, एक बड़ा मन्दिर (प्रासाद) बनवाया और उसमें एक उपयुक्त प्रतिमा प्रतिष्ठापित करने की इच्छा की। राजा ने स्वप्न में वासुदेव को देखा, जिन्होंने उससे प्रातःकाल समुद्र-तट जाने को तथा उसके पास खड़े वटवक्ष को कुल्हाड़ी से काटने को कहा। राजा ने प्रातःकाल वैसा ही किया और तब दो ब्राह्मण (जो वास्तव में विष्णु एवं विश्वकर्मा थे ) प्रकट हुए। विष्णु ने राजा से कहा कि उनके साथी (विश्वकर्मा) देव प्रतिमा बनायेंगे। कृष्ण, बलराम एवं सुभद्रा की तीन प्रतिमाएँ बनायी गयीं और राजा को दी गयीं। विष्णु ने वरदान दिया कि इन्द्रद्युम्न नामक ह्रद (सर या तालाब) जहाँ राजा ने अश्वमेध के उपरान्त स्नान किया था, राजा के नाम से विख्यात होगा, जो लोग उसमें स्नान करेंगे वे इन्द्रलोक जायेंगे और जो लोग उस तालाब के किनारे पिण्डदान करेंगे वे अपने कुल के २१ पूर्वपुरुषों को तारेंगे। इसके उपरान्त राजा ने अपने बनवाये हुए मन्दिर में तीनों प्रतिमाएँ प्रतिष्ठापित कर दी।२ स्कन्दपुराण ने उत्कलखण्ड नामक उपप्रकरण एवं वैष्णवखण्ड नामक प्रकरण में पुरुषोत्तम-माहात्म्य दिया है, जिसमें इन्द्रद्युम्न की गाथा कुछ भिन्न अन्तरों के साथ दी हुई है। उपर्युक्त गाथा से यदि अलौकिकता को हटाकर देखा जाय तो यह कहना सम्भव हो जाता है कि पुरुषोत्तमतीर्थ प्राचीन का ठ में नीलाचल कहा जाता था, कृष्ण-पूजा यहाँ पर उत्तर भारत से लायी गयी थी और लकड़ी की तीन प्रतिमाएँ कालान्तर में प्रतिष्ठापित हुई थी। यहाँ यह कह देना आवश्यक है कि मैत्रायण्युपनिषद् (१।४) में २१. विरजाक्षेत्र उड़ीसा में वैतरणी नदी पर स्थित जाजपुर से थोड़ी दूर आगे तक फैला हुआ है। कलिंग, ओड़ . एवं उत्कल के लिए देखिए आर० डी० बनर्जीकृत 'हिस्ट्री आव उड़ीसा' (जिल्द १, पृ० ४२-५८)। २२. देलिए हण्टर कृत 'उड़ीसा' (जिल्द १, पृ० ८९-९४), जहाँ उपर्युक्त गाथा से कुछ भिन्न बातें, जो कपिलसंहिता पर आधारित है, कही गयी हैं, जिनमें अत्यन्त महत्वपूर्ण ये हैं कि विष्णु ने इन्द्रद्युम्न को अपनी उस लकड़ी की प्रतिमा दिसलामी जो समुद्र द्वारा प्रकट की गयी थी, प्रतिमाएँ देवी बढ़ई द्वारा गढ़ी गयी थी और ऐसी आज्ञा दी गयी पीकि जब तक वे गढ़ न दी जायें उन्हें कोई न देखे, किन्तु रानी ने उन्हें उस अवस्था में देख लिया जब कि वे केवल कमर तक छीली जा चुकी थीं और कृष्ण एवं बलराम को प्रतिमाओं की भुजाएं अभी गढ़ी नहीं गयी थीं, अर्थात् अभी वे कुन्दों के तनों के रूप में ही थी और सुभद्रा की प्रतिमा को अभी भुजाओं का रूप नहीं मिला था। आज की प्रतिमाओं का स्वरूप ऐसा ही है। राजेगलाल मित्र ने अपनी पुस्तक 'एण्टीक्विटोज आव उड़ीसा' (२, पृ० १२२-१२३) में इन प्रतिमाओं का उल्लेख किया है। इन्द्रद्युम्न की गाथा नारदीयपुराण (उत्तरार्ष, ५२१४१-९३, ५३-५७, ५८०१-२१, ६०-६१) में आयी है। नारदीय ने ब्रह्मपुराण के समान ही बातें लिखी हैं और ऐसा लगता है कि इसने दूसरे से बहुत कुछ बातें ज्योंकी-स्पोंसेली हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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