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________________ १३८० धर्मशास्त्र का इतिहास विषय में पूर्ण अध्ययन करना चाहते हैं उन्हें निम्न पुस्तकें देखनी चाहिए -- डब्लू० डब्लू० हण्टरकृत 'उड़ीसा' (जिल्द १, पृ० ८१-१६७), राजेन्द्रलाल मित्र कृत 'एण्टीक्विटीज़ ऑव उड़ीसा (जिल्द २, पृ० ९९ - १४४ ), आर० डी० बनर्जी कृत 'हिस्ट्री आव उड़ीसा ( दो जिल्दों में, १९१० ), गजेटियर ऑन पुरी (जिल्द २०, पृ० ४०९४१२)। उड़ीसा में चार अत्यन्त महत्वपूर्ण तीर्थ हैं, यथा – भुवनेश्वर ( या चक्रतीर्थ), जगलाम (या शंस-क्षेत्र), कोणार्क (या पद्म-क्षेत्र) तथा याजपुर या जाजपुर ( गवा - क्षेत्र) । प्रथम दो आज भी ऊँची दृष्टि से देखे जाते हैं और अन्तिम दो सर्वथा उपेक्षित-से हैं । पुराणों में पुरुषोत्तमतीर्थ का सविस्तर वर्णन ब्रह्म० (अध्याय ४१-७०, लगभग १६०० श्लोक ) एवं बहतारदीय० (उत्तरार्ध, अध्याय ५२-६१, ८२५ श्लोक ) में हुआ है। निबन्धों में वाचस्पति कृत तीर्थचिन्तामणि ( जिसमें लगमग एक-तिहाई भाग पुरुषोत्तमतीर्थ के विषय में है, पृ० ५३- १७५, और जिसने पुरुषोत्तम सम्बन्धी ८०० श्लोक ब्रह्मपुराण से उद्धृत किये हैं), रघुनन्दनकृत पुरुषोत्तमतत्त्व (जो संक्षिप्त है और ब्रह्मपुराण पर आधारित है) एवं तीर्थप्रकाश (पृ० ५६१-५९४) विशेष उल्लेखनीय हैं। यह ज्ञातव्य है कि कल्पतरु ( लगभग सन् १११०-११२० ई० में प्रणीत) के तीर्थकाण्ड में पुरुषोत्तमतीर्थ का उल्लेख नहीं है, यद्यपि इसने लोहार्गल, स्तुतस्वामी एवं कोकामुख जैसे कम प्रसिद्ध तीर्थों का वर्णन किया है। रघुनन्दन ने अपने पुरुषोत्तम-तत्त्व में एक मन्त्र ( जो अशुद्ध छपा है) ॠग्वेद से उद्धृत किया है जिसके संदर्भ से प्रकट होता है कि यह किसी दुष्टात्मा (अलक्ष्मी) को सम्बोधित है. इसका अर्थ यों है - हे दुष्ट रूप बुक (ठुड्डी) f वाले दुष्टात्मा (या जिसे कठिनाई से मारा जा सके), उस समुद्र वाले दूर के वन में चले जाओ, जिसका मानवों से कोई सम्बन्ध नहीं है और इसके साथ दूर स्थानों को चले जाओ ।" रघुनन्दन का कथन है कि अथर्ववेद में भी ऐसा ही मन्त्र है । सम्भवतः सायण का अनुसरण करके रघुनन्दन ने इस ॠग्वेदीय मन्त्र को पुरुषोत्तम से सम्बन्धित कर दिया है । क्योंकि पुरुषोत्तम की प्रतिमा काष्ठ की होती है । ब्रह्मपुराण में वर्णित जगन्नाथ की कथा को संक्षेप में कह देना आवश्यक है। भारतवर्ष में दक्षिणी समुद्र के किनारे ओण्ड्र नामक एक देश है जो समुद्र से उत्तर की ओर विरज-मण्डल तक विस्तृत है ( २८/१-२ ) । उस देश में एक तीर्थ है जो पापनाशक एवं मुक्तिदाता है, चारों ओर से बालू से आच्छादित है और है विस्तार में दस योजन (४२११३ २०. यथा 'आदौ यद्दारु प्लवते सिन्धोः पारे अपूरुषम् । तदालभस्व दुर्टूनो तेन याहि परं स्थलम् ॥' अस्य व्याख्या सांख्यायनभाष्ये । आदौ विप्रकृष्टदेशे वर्तमानं अपूरुषं निर्मातृसहितत्वेन तदालभस्व दुर्द्वनो हे होतः . .... अथर्ववेदेपि । आदौ... सिन्धोर्मध्ये अपूरुषम् । तदा स्थलम् । अत्रापि तथैवार्थः । मध्ये तीरे ॥ पुरुषोत्तमतस्व (जिल्व २, १०५६३) । प्रथम मन्त्र वास्तव में ऋ० (१०।१५५। ३ का है -- ' अबो ... अपूरुषम् । तदा रभस्व दुर्हणो तेन गच्छ परस्तरम् ॥' सायण ने इस मन्त्र को पुरुषोत्तम-सम्बन्धी माना है— 'यद्दारु वारुपयं पुरुषोसमाख्यं वेबताशरीरं... हे दुर्हणो दुःखेन हननीय केनापि हन्तुमशक्य हे स्तोत: आरभस्व अवलम्बस्व उपास्स्वेत्यर्थः ' सायण ने इस के विषय अपने किसी पूर्ववर्ती व्यक्ति की व्याख्या दी है, यथा-यह एक तुष्टात्मा (अलक्ष्मी) के प्रति सम्बोधित है और उससे कहा गया है कि वह किसी नाव या लकड़ी के कुन्दे (बलि के रूप में) की ओर चला जाय और उस सुदूर स्थल को बता जाय जहाँ मानव न हों। यह व्याख्या स्वाभाविक-सी है और संदर्भ में बैठ जाती है। अथर्ववेद में यह मन्त्र नहीं मिल सका है। Jain Education International ... For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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