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________________ गया के तीर्थों का वर्णन १३६५ यदि यात्री गया में आधे मास या पूर्ण मास तक रहे तो वह अपनी सुविधा के अनुसार अन्य तीर्थों की यात्रा कर सकता है, किन्तु सर्वप्रथम प्रेतशिला पर श्राद्ध करना चाहिए और सबसे अन्त में अक्षयवट पर । त्रिस्थली ० में यह आया है कि यद्यपि atro, अग्नि० एवं अन्य पुराणों में तीर्थों की यात्रा के क्रम में भिन्नता पायी जाती है, किन्तु वायु० में उपस्थापित क्रम को मान्यता दी जानी चाहिए, क्योंकि उसने सब कुछ विस्तार के साथ वर्णित किया है, यदि कोई इन क्रमों को नहीं जानता है तो वह किसी भी क्रम का अनुसरण कर सकता है, किन्तु प्रेतशिला एवं अक्षयवट का क्रम नहीं परिवर्तित हो सकता।" गययात्रा (वायु०, अध्याय ११२) में आया है कि राजा गय ने यज्ञ किया और दो वर पाये, जिनमें एक था गया के ब्राह्मणों को फिर से संमान्य पद देना और दूसरा था गया पुरी को उसके नाम पर प्रसिद्ध करना । गयायात्रा में विशाल नामक राजा को भी गाया आयी है जिसने पुत्रहीन होने पर गयाशीर्ष में पिण्डदान किया, जिसके द्वारा उसने अपने तीन पूर्वपुरुषों को बचाया, पुत्र पाया और स्वयं स्वर्ग चला गया। इसमें एक अन्य गाथा भी आयी है ( श्लोक १६-२० ) - एक रोगी व्यक्ति प्रेत की स्थिति में था, उसने अपनी सम्पत्ति का छठा भाग एक व्यापारी को दिया और शेष को गया श्राद्ध करने के लिए दिया और इस प्रकार वह प्रेत-स्थिति से मुक्ति पा गया । यह कथा अग्नि० ( ११५।५४-६३), नारदीय० (उत्तर, ४४ । २६-५०), गरुड़ ० ( १।८४ ३४-४३), वराह० (७।१२) में भी पायी जाती है। इसके उपरान्त श्लोक २०-६० में गया के कई तीर्थों के नाम आये हैं, यथा - गायत्रीतीर्थ, प्राची-सरस्वतीतीर्थ, विशाला, लेलिहान, भरत का आश्रम, मुण्डपृष्ठ, आकाशगंगा, वैतरणी एवं अन्य नदियाँ तथा पवित्र स्थल । अन्त में इसने निष्कर्ष निकाला है कि पूजा एवं पिण्डदान से छः गयाएँ मुक्ति देती हैं, यथा-गयाग्रज, गयादित्य, गायत्री (तीर्थ), गदाधर, गया एवं गयाशिर । ४ अग्नि० (अध्याय ११६ । १-३४) में गया के तीर्थों की एक लम्बी तालिका दी हुई है और उसे त्रिस्थलीसेतु ( पृ० ३७६-३७८) ने उद्धृत किया है। किन्तु हम उसे यहाँ नहीं दे रहे हैं। गया के तीर्थों की संख्या बड़ी लम्बी-चौड़ी है, किन्तु अधिकांश यात्री सभी की यात्रा नहीं करते । गया के यात्री को तीन स्थानों की यात्रा करना अनिवार्य है, यथा-- फल्गु नदी, विष्णुपद एवं अक्षयवट । यहाँ दुग्ध, जल, पुष्पों, चन्दन, ताम्बूल, दीप से पूजा की जाती है और पितरों को पिण्ड दिये जाते हैं । किन्तु फल्गु के पश्चिम एक चट्टान पर विष्णुचरणों के ऊपर विष्णु पद का मन्दिर निर्मित हुआ है। गया का प्राचीन नगर विष्णु-पद के चारों ओर बसा हुआ था, यह मन्दिर गया का सबसे बड़ा एवं महत्वपूर्ण स्थल है। पद चिह्न (लगभग १६ इंच लम्बे ) विष्णु भगवान् के ही कहे जाते हैं और वे अष्ट कोण वाले रजत घेरे के अन्दर हैं। सभी जाति-वाले यात्री (अछूतों को छोड़कर) चारों ओर खड़े होकर उन पर भेट चढ़ाते हैं, किन्तु कभी-कभी लम्बी रकम पाने की लालसा से पुरोहित लोग अन्य यात्रियों को हटाकर द्वार बन्द कर एक-दो मिनटों के लिए किसी कट्टर या धनी व्यक्ति को पूजा करने की व्यवस्था कर देते हैं । कुल ४५ वेदियाँ हैं जहाँ अवकाश पाने पर यात्री सुविधानुसार जा सकते हैं और ये वेदियाँ गया (प्राचीन नगर ) के पाँच मील उत्तर-पूर्व और सात मील दक्षिण के विस्तार में फैली हुई हैं। यद्यपि प्राचीन बौद्धग्रन्थों, फाहियान एवं ह्वेन ३३. क्रमतोऽक्रमतो वापि गयायात्रा महाफला। अग्नि० (११५।७४) एवं त्रिस्थलो० ( पृ० ३६८ ) । ३४. गयागजो गयादित्यो गायत्री च गवाधरः । गया गयाशिरश्चैव षड् गया मुक्तिदायिकाः ॥ वायु० (११२ ॥ ६०), तीर्थचि ० ( १०३२८, 'षड् गयं मुक्तिदायकं' पाठ आया है) एवं त्रिस्थली० ( पृ० ३७२ ) । यह नारदीय० (उत्तर, ४७।३९-४० ) में आया है। लगता है, गया के गदाधर-मन्दिर के निकट हाथी की आकृति से युक्त स्तम्भ को गयागज कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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