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________________ १३६४ धर्मशास्त्र का इतिहास करना चाहिए । अग्नि० (११५-३४-३७) एवं नारदीय० (उत्तर, ४५।१०५) ने इन तीर्थों का उल्लेख किया है। पंचतीर्थी कृत्य के तीसरे दिन ( अर्थात् गया प्रवेश के पाँचवें दिन ) यात्री को ब्रह्मसर में स्नान करना चाहिए और ब्रह्मकूप एवं ब्रह्मयू (ब्रह्मा द्वारा यज्ञ करने के लिए स्थापित यज्ञिय स्तम्भ ) के मध्य में पिण्डों के साथ श्राद्ध करना चाहिए । इस श्राद्ध से यात्री अपने पितरों की रक्षा करता है। यात्री को ब्रह्मयूप की प्रदक्षिणा करनी चाहिए और ब्रह्मा को प्रणाम करना चाहिए । गोप्रचार के पास ब्रह्मा द्वारा लगाये गये आम्रवृक्ष हैं। ब्रह्मसर से जल लेकर किसी आम्रवृक्ष में देने से पितर लोग मोक्ष पाते हैं । इसके उपरान्त यम एवं धर्मराज को, यम के दो कुत्तों को तथा कौओं को बलि देनी चाहिए और तब ब्रह्मसर में स्नान करना चाहिए। यह वायु० ( १११।३०-४० ) का निष्कर्ष है । इनमें कुछ बातें अग्नि० ( ११५ । ३४-४० ) एवं नारदीय ० ( उत्तर, ४६) में भी पायी जाती हैं। इसके उपरान्त पंचतीर्थी कृत्यों के चौथे दिन ( गया प्रवेश के छठे दिन ) यात्री को फल्गु में साधारण स्नान करना चाहिए और गयाशिर के कतिपय पदों पर श्राद्ध करना चाहिए। गयाशिर क्रौञ्चपद से फल्गुतीर्थ तक विस्तृत है। गयाशिर पर किया गया श्राद्ध अक्षय फल देता है । " यहाँ पर आदि - गदाघर विष्णुपद के रूप में रहते हैं । विष्णुपद पर पिण्डदान करने से यात्री एक सहस्त्र कुलों की रक्षा करता है और अपने को कल्याणमय, अक्षय एवं अनन्त विष्णुलोक में ले जाता है। इसके उपरान्त वायु० ( १११।४७-५६ ने रुद्रपद, ब्रह्मपद एवं अन्य १४ पदों पर किये गये श्राद्धों के फलों की चर्चा की है। " गयाशिर पर यात्री जिसका नाम लेकर पिण्ड देता है, वह व्यक्ति यदि नरक में रहता है तो स्वर्ग जाता है और यदि वह स्वर्ग में रहता है तो मोक्ष प्राप्त करता है ।' पञ्चतीर्थी कृत्यों के पाँचवें दिन ( गया- प्रवेश के सातवें दिन ) यात्री को गदालोल नामक तीर्थ में स्नान करना चाहिए।" गदालोल में पिण्डों के साथ श्राद्ध करने से यात्री अपने एवं अपने पितरों को ब्रह्मलोक में ले जाता है। इसके उपरान्त उसे अक्षयवट पर श्राद्ध करना चाहिए और ब्रह्मा द्वारा प्रतिष्ठापित गया के ब्राह्मणों को दानों एवं भोजन से - सम्मानित करना चाहिए। जब वे परितृप्त हो जाते हैं तो पितरों के साथ देव भी तृप्त हो जाते हैं। इसके उपरान्त यात्री को अक्षयवट को प्रणाम कर मन्त्र के साथ उसकी पूजा करनी चाहिए और प्रपितामह की पूजा के लिए प्रणाम करना चाहिए। और देखिए अग्नि० ( ११५ । ६९-७३) एवं नारदीय० ( उत्तर, अध्याय ४७ ) 1 त्रिस्थली सेतु ( पृ० ३६८) में आया है कि उपर्युक्त कृत्य गया में किये जाने वाले सात दिनों के कृत्य हैं और २९. क्रौञ्चपादात्फल्गुतीर्थं यावत्साक्षाद् गयाशिरः । वायु० ( ११११४४ ) । क्रौञ्चपाद को वायु० (१०८/७५) ने मुण्डपृष्ठ कहा है-" क्रौञ्चरूपेण हि मुनिर्मुण्डपृष्ठे तपोऽकरोत् । तस्य पादांकितो यस्मात्कौउचपावस्ततः स्मृतः ॥ ३०. त्रिस्थली० ( पृ० ३६६ ) में आया है कि विष्णुपद एवं अन्य पदों पर किये गये श्राद्धों के अतिरिक्त गयाशिर पर पृथक रूप से श्राद्ध नहीं होता। गयाशिरसि यः पिण्डान्येषां नाम्ना तु निर्वपेत् । नरकस्था दिवं यान्ति स्वर्गस्था मोक्षमाप्नुयुः ॥ देखिए वायु० ( ११११७३) एवं अग्नि० ( ११५।४७ ) । गयाशिर गया का केन्द्र है और यह अत्यन्त पवित्र स्थल है। ३१. इस तीर्थ का नाम गदालोल इसलिए पड़ा कि यहाँ पर आदि-गदाधर ने अपनी गदा से असुर हेति के सिर को कुचलने के उपरान्त उसे ( गदा को) धोया था । हेत्यसुरस्य यच्छीषं गदया तद् द्विधा कृतम् । ततः प्रक्षालिता यस्मात्तीर्थं तच्च विमुक्तये। गदालोलमिति ख्यातं सर्वेषामुत्तमोत्तमम् ॥ वायु ० ( १११।७५) । गदालोल फल्गु की धारा में ही है। ३२. मिलाइए - - 'ये युष्मान्पूजयिध्यन्ति गयायामागता नराः। हव्यकव्यैर्धनैः श्राद्धस्तेषां कुलशतं व्रजेत् । नरकात् स्वर्गलोकाय स्वर्गलोकात्परां गतिम् ॥' अग्नि० ( ११४ । ३९-४० ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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