SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 366
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गया-माहात्म्य-गयासुर को देह पर देवताओं के स्थान १३५९ उन्हें जीविका के लिए कुछ चाहिए,तब ब्रह्मा ने कहा कि वे गया-यात्रियों के दान पर जीएँगे और जो लोग उन्हें सम्मानित करेंगे वे मानो उन्हें (ब्रह्मा को) ही सम्मानित करेंगे। १०७वें अध्याय में उस शिला की गाथा है जो गयासुर के सिर पर उसे स्थिर करने के लिए रखी गयी थी। धर्म की धर्मव्रता नामक कन्या थी। उसके गुणों के अनुरूप धर्म को कोई वर नहीं मिल रहा था, अतः उन्होंने उसे तप करने को कहा। धर्मव्रता ने सहस्रों वर्षों तक केवल वायु पीकर कठिन तप किया। मरीचि ने, जो ब्रह्मा के मानस पुत्र थे, उसे देखा और अपनी पत्नी बनाने की इच्छा प्रकट की। धर्मवता ने इसके लिए उन्हें पिता धर्म से प्रार्थना करने को कहा। मरीचि ने वैसा ही किया और धर्म ने अपनी कन्या मरीचि को दे दी। मरीचि उसे लेकर अपने आश्रम में गये और उससे एक सौ पुत्र उत्पन्न किये। एक बार मरीचि श्रमित होकर सो गये और धर्मव्रता से पैर दबाने को कहा। जब वह पैर दबा रही थी तो उसके श्वशुर ब्रह्मा वहाँ आये। वह अपने पति का पैर दबाना छोड़कर उनके पिता की आवभगत में उठ पड़ी। इसी बीच में मरीचि उठ पड़े और अपनी पत्नी को वहाँ न देखकर उसे शिला बन जाने का शाप दे दिया। क्योंकि पैर दबाना छोड़कर उसने उनकी आज्ञा का उल्लंघन जो कर दिया था। वह निर्दोष थी अतः क्रोधित होकर शाप देना चाहा, किन्तु रुककर उसने कहा--'महादेव तुम्हें शाप देंगे।' उसने गार्हपत्य अग्नि में खड़े होकर तप किया और मरीचि ने भी वैसा ही किया। इन्द्र के साथ सदा की भाँति देवगण विचलित हो गये और वे विष्णु के पास गये। विष्णु ने धर्मव्रता से वर माँगने को कहा। उसने पति के शाप को मिटाने का वर माँगा। देवों ने कहा कि मरीचि ऐसे महान ऋषि का शाप नहीं टूट सकता अत: वह कोई दूसरा वर माँगे । इस पर उसने कहा कि वह सभी नदियों, ऋषियों, देवों से अधिक पवित्र हो जाय, सभी तीर्थ उस शिला पर स्थिर हो जायें, सभी व्यक्ति जो उस शिला के तीर्थों में स्नान करें या पिण्डदान एवं श्राद्ध करें, ब्रह्मलोक चले जाएँ और गंगा के समान सभी पवित्र नदियाँ उसमें अवस्थित हों। देवों ने उसकी बात मान ली और कहा कि वह गयासुर के सिर पर स्थिर होगी और हम सभी उस पर खड़े होंगे। १०८वें अध्याय में पाठान्तर-सम्बन्धी कई विभिन्नताएँ हैं। आनन्दाश्रम' के संस्करण में इसका विषय संक्षेप में यों हैं। शिला गयासुर के सिर पर रखी गयी और इस प्रकार दो अति पुनीत वस्तुओं का संयोग हुआ, जिस पर ब्रह्मा ने अश्वमेध किया और जब देव लोग यज्ञिय आहतियों का अपना भाग लेने के लिए आये तो शिला ने विष्णु एवं अन्य लोगों से कहा-प्रण कीजिए कि आप लोग शिला पर अवस्थित रहेंगे और पितरों को मुक्ति देंगे। देव मान गये और आकृतियों एवं पदचिह्नों के रूप में शिला पर अवस्थित हो गये। शिला असुर के सिर के पृष्ठ भाग में रखी गयी थी अतः उस पर्वत को मुण्डपृष्ठ कहा गया, जिसने पितरों को ब्रह्मलोक दिया। इसके उपरान्त अध्याय में प्रभास नामक पर्वत का, प्रभास पर्वत एवं फल्ग के मिलन-स्थल के समीप रामतीर्य, भरत के आश्रम का, यमराज एवं धर्मराज तथा श्याम एवं शबल नामक यम के कुत्तों को दी जाने वाली बलि का, शिला की वाम दिशा के पास अवस्थित उद्यन्त पर्वत का, अगस्त्य कुण्ड का तथा गृध्रकूट पर्वत, च्यवन के आश्रम, पुनपुना नदी, क्रौञ्चपद एवं भस्मकूट पर स्थित जनार्दन का वर्णन आया है। गयासुर की गाथा से डा० मित्र एवं पश्चात्कालीन लेखकों के मन में दुविधाएँ उत्पन्न हो गयी हैं। डा. राजेन्द्रलाल मित्र ने गयासुर की गाथा को चित्र-विचित्र एवं मूर्खतापूर्ण माना है। उनका कहना है कि वह राक्षस या दुष्ट १८. अग्नि० (११४।८-२२) में भी शिला की गाथा संक्षेप में कही गयी है। बहुत-से शब्द वे ही हैं जो वायुपुराण में पाये जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy