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________________ १३५८ धर्मशास्त्र का इतिहास कुल की २१ पीढ़ियों की रक्षा करता है। अक्षयवट के नीचे जाना चाहिए और वहाँ (गया के) ब्राह्मणों को संतुष्ट करना चाहिए। गया में कोई भी ऐसा स्थल नहीं है जो पवित्र न हो। १०६वें अध्याय में गयासुर की गाथा आयी है। गयासुर ने, जो १२५ योजन लम्बा एवं ६० योजन चौड़ा था, कोलाहल नामक पर्वत पर सहस्रों वर्षों तक तप किया। उसके तप से पीड़ित एवं चिन्तित देवगण रक्षा के लिए ब्रह्मा के पास गये। ब्रह्मा उन्हें लेकर शिव के पास गये जिन्होंने विष्णु के पास जाने का प्रस्ताव किया। ब्रह्मा, शिव एवं देवों ने विष्णु की स्तुति की और उन्होंने प्रकट होकर कहा कि वे लोग अपने-अपने वाहनों पर चढ़कर गयासुर के पास चलें। विष्णु ने उससे कठिन तप का कारण पूछा और कहा कि वह जो वरदान चाहे मांग ले। उसने वर माँगा कि वह देवों, ऋषियों, मन्त्रों, संन्यासियों आदि से अधिक पवित्र हो जाय। देवों ने 'तथास्तु' अर्थात् 'ऐसा ही हो''कहा और स्वर्ग चले गये। जो भी लोग गयासुर को देखते थे या उसके पवित्र शरीर का स्पर्श करते थे, वे स्वर्ग चले जाते थे। यम की राजधानी खाली पड़ गयी और वे ब्रह्मा के पास चले गये। ब्रह्मा उन्हें लेकर विष्णु के पास गये । विष्णु ने ब्रह्मा से उससे प्रार्थना करने को कहा कि वह यज्ञ के लिए अपने शरीर को दे दे। गयासुर सन्नद्ध हो गया और वह दक्षिण-पश्चिम होकर पृथिवी पर इस प्रकार गिर पड़ा कि उसका सिर कोलाहल पर्वत पर उत्तर की ओर और पैर दक्षिण की ओर हो गये। ब्रह्मा ने सामग्रियाँ एकत्र की और अपने मन से उत्पन्न ऋत्विजों (जिनमें ४० के नाम आये हैं) को भी बुलाया और गयासुर के शरीर पर यज्ञ किया। उसका शरीर स्थिर नहीं था, हिल रहा था, अतः ब्रह्मा ने यम से गयासुर के सिर पर अपने घर की शिला को रखने को कहा। यम ने वैसा ही किया। किन्तु तब भी गयासुर का शरीर शिला के साथ हिलता रहा। ब्रह्मा ने शिव एवं अन्य देवों को शिला पर स्थिर खड़े होने को कहा। उन्होंने वैसा किया, किन्तु तब भी शरीर हिलता-डोलता रहा। तब ब्रह्मा विष्णु के पास गये और उनसे शरीर एवं शिला को अडिग करने को कहा। इस पर विष्णु ने स्वयं अपनी मूर्ति दी जो शिला पर रखी गयी, किन्तु तब भी वह हिलती रही। विष्णु उस शिला पर जनार्दन, पुण्डरीक एवं आदि-गदाधर के तीन रूपों में बैठ गये, ब्रह्मा पाँच रूपों (प्रपितामह, पितामह, फलवीश, केदार एवं कनकेश्वर) में बैठ गये, विनायक हाथी के रूप में और सूर्य तीन रूपों में, लक्ष्मी (सीता के रूप में), गौरी (मंगला के रूप में), गायत्री एवं सरस्वती भी बैठ गयीं। हरि ने प्रथम गदा द्वारा गयासुर को स्थिर कर दिया, अतः हरि को आदि गदाधर कहा गया। गयासुर ने पूछा--'मैं प्रवंचित क्यों किया गया हूँ? मैं ब्रह्मा के यज्ञ के लिए उन्हें अपना शरीर दे चुका हूँ। क्या मैं विष्णु के शब्द पर ही स्थिर नहीं हो सकता था (गदा से मुझे क्यों पीड़ा दी जा रही है)?' तब देवों ने उससे वरदान माँगने को कहा। उसने वर मांगा; 'जब तक पृथिवी, पर्वत, सूर्य, चन्द्र एवं तारे रहें, तब तक ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव एवं अन्य देव शिला पर रहें। यह तीर्थ मेरे नाम पर रहे, सभी तीर्थ गया के मध्य में केन्द्रित हों, जो पांच कोसों तक विस्तृत है और सभी तीर्थ गयाशिर में भी रहें जो एक कोस विस्तृत है और सभी लोगों का कल्याण करें। सभी देव यहाँ व्यक्त रूपों (मूर्तियों) में एवं अव्यक्त रूपों (पदचिह्न आदि) में रहें। वे सभी, जिन्हें पिण्ड के साथ श्राद्ध दिया जाय, ब्रह्मलोक को जायँ और सभी महापातक (ब्रह्महत्या आदि)अचानक नष्ट हो जायें।' देवों ने 'तथास्तु' कहा। इसके उपरान्त ब्रह्मा ने ऋत्विजों को पाँच कोसों वाला गया-नगर, ५५ गाँव, सुसज्जित घर, कल्पवृक्ष एवं कामधेनु, दुग्ध की एक नदी, सोने के कूप, पर्याप्त भोजन आदि सामान दिये, किन्तु ऐसी व्यवस्था कर दी कि वे किसी से कुछ माँगें नहीं। किन्तु लोभी ब्राह्मणों ने धर्मारण्य में धर्म के लिए यज्ञ किया और उसकी दक्षिणा माँगी । ब्रह्मा ने वहाँ आकर उन्हें शाप दिया और उनसे सब कुछ छीन लिया। जब ब्राह्मणों ने विलाप किया कि उनसे सब कुछ छीन लिया गया और अब १७. गयायां न हि तत्स्थानं यत्र तीर्थ न विद्यते। वायु० (१०५।४६, अग्नि० ११६।२८)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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