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काशी एवं वाराणसी की सीमा और महिमा
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उत्तरवाहिनी है, पवित्र होगी। जब ग्रन्थों में अविमुक्त के विस्तार के विषय में अन्तर पाया जाय तो ऐसा समझना चाहिए कि वहाँ विकल्प है (जैसा कि तीर्थचि ० में आया है कि अन्तर विभिन्न कल्पों या यगों के द्योतक हैं)। यह स्पष्ट है कि वाराणसी वह क्षेत्र है जिसके पूर्व में गंगा, दक्षिण में असि, पश्चिम में देहली - विनायक एवं उत्तर में वरणा है। सातवीं शताब्दी में ह्वेनसांग ने लिखा है कि बनारस लम्बाई में १८ ली ( लगभग ३ / मील) एवं चौड़ाई में ५ या ६ ली (एक मील से कुछ अधिक ) है। इससे प्रकट होता है कि उन दिनों भी बनारस वरणा एवं असि के मध्य में था ।
वाराणसी की महत्ता एवं विलक्षणता के विषय में सहस्रों श्लोक मि ते हैं। यहाँ हम केवल कुछ ही विशिष्ट श्लोकों की चर्चा कर सकेंगे । वनपर्व ( ८४१७९-८० ) में आया है -- अविमुक्त में आनेवाला एवं रहनेवाला ( तीर्थसेवी ) व्यक्ति विश्वेश्वर का दर्शन करते ही ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है, यदि वह यहाँ मर जाता है तो वह मोक्ष पा जाता है। मत्स्य ० ( १८०/४७) ने कहा है--' वाराणसी मेरा सर्वोत्तम तीर्थ स्थल है, सभी प्राणियों के लिए यह मोक्ष का कारण है। प्रयाग या इस नगर में मोक्ष प्राप्ति हो सकती है, क्योंकि इसकी रक्षा का भार मेरे ऊपर है, यह तीर्थराज प्रयाग से भी महान् है । ज्यों ही व्यक्ति अविमुक्त में प्रवेश करता है, सहस्रों अतीत जीवनों में किये गये एकत्र पाप नष्ट हो जाते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, वर्णसंकर, कृमि (कीड़े-मकोड़े), म्लेच्छ, अन्य पापयोनियों से उत्पन्न लोग, कीट-पतंग, चींटियाँ, पक्षी एवं पशु जब काल के मुख में पहुँच जाते हैं, तो वे सभी मेरे शुभ नगर में सुख पाते हैं, वे सभी अपने सिरों पर चन्द्रार्थ ग्रहण कर लेते हैं, ललाट पर (तीसरा ) नेत्र पा जाते हैं और बाहन रूप में वृष (बैल) पा लेते हैं।' मत्स्य० (१८०।७१ एवं ७४ ) में पुनः आया है-- विषयासक्त-चित्त लोग, धर्म-भक्ति को व्यक्त कर देनेवाले लोग भी यदि काशी में मर जाते हैं, तो वे पुनः जन्म नहीं लेते; सहस्रों जन्मों के योग-साधन के उपरान्त योग-प्राप्ति होती है, किन्तु काशी में मृत्यु होने से इसी जीवन में परम मोक्ष प्राप्त हो जाता है। पापी, शठ एवं अधार्मिक व्यक्ति भी पापमुक्त हो जाता है, यदि वह अविमुक्त में प्रवेश करता है ( मत्स्य ० १८३ । ११; पद्म० १।३३।३८ ) । भोगपरायण एवं कामचारिणी स्त्रियाँ भी यहाँ पर काल में मृत्यु पाने पर मोक्ष पाती हैं ( मत्स्य० १८४ ३६ ) । इस विश्व में बिना योग के मानव मोक्ष नहीं पाते, किन्तु अविमुक्त में निवास करने से योग एवं मोक्ष दोनों प्राप्त हो जाते हैं (मत्स्य० १८५।१५।१६ ) | समय से ग्रह एवं नक्षत्र गिर सकते हैं, किन्तु अविमुक्त में मरने से कभी भी पतन नहीं हो सकता ( मत्स्य ० १८५-६१ काशीखण्ड ६४ । ९६ ) दुष्ट प्रकृति वाले पुरुषों या स्त्रियों द्वारा जो भी दृष्ट कर्म जान या अनजान में किये जायें, किन्तु जब वे अविमुक्त में प्रवेश करते हैं तो वे (दुष्ट कर्म) भस्म हो जाते हैं (नारदीय०, उत्तर, ४८। ३३-३४; काशी० ८५।१५) । काशी में रहने वाला म्लेच्छ भी भाग्यशाली है, बाहर रहने वाला, चाहे वह दीक्षित ( यज्ञ करने वाला) ही क्यों न हो, मुक्ति का भाजन नहीं हो सकता ।
कुछ पुराणों में वाराणसी एवं नदियों का रहस्यात्मक रूप भी दिखाया गया है। उदाहरणार्थ, काशीखण्ड में आया है कि असि इडा नाड़ी है, वरणा पिंगला है, अविमुक्त सुषुम्ना है और वाराणसी तीनों है ( ५/२५ ) | लिंग० ( तीर्थचि ०, पृ० ३४१; त्रिस्थली०, पृ० ७८-७९ ) ने यही बात दूसरे ढंग से कही है। इसमें आया है कि असि (शुष्क नदी), वरणा एवं मत्स्योदरी (गंगा) क्रम से पिंगला, इडा एवं सुषुम्ना हैं।
११. स होवाचेति जावालिरारुणेऽसिरिडा मता । वरणा पिंगला नाडी तदन्तस्त्वविमुक्तकम् ॥ सा सुषुम्ना परा माडी श्रयं वाराणसी त्वसौ ॥ स्कन्द० ( काशी० ५।२५; मिलाइए नारदीय० (उत्तर, ४७।२२-२३; ) पिंगला नाम या नाडी आग्नेयी सा प्रकीर्तिता । शुष्का सरिच्च सा ज्ञेया लोलार्को यत्र तिष्ठति ॥ इडानाम्नी च या नाडी सा सौम्या
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