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धर्मशास्त्र का इतिहास निकृष्ट के कई अन्य प्रकार हैं, यथा घुल-मिलकर बात करना, स्पर्श करना, एक ही पात्र में भोजन बनाना, उससे दान लेना आदि। अध्यापन तभी दुष्कृत्य माना जायगा जब वह वेद से सम्बन्धित हो, इसी प्रकार याजन का सम्बन्ध है दर्शपूर्णमास, चातुर्मास्य, अग्निष्टोम जैसे वैदिक यज्ञों से। महापातकी को पंच आह्निक यज्ञों के सम्पादन में सहायता देना, उसे अंग (छंद, व्याकरण आदि) एवं शास्त्र पढ़ाना हलके पाप हैं। पराशर (१२१७९) का कथन है कि साथ बैठने या सोने या एक ही वाहन के प्रयोग करने या उससे बोलने या एक ही पंक्ति में खाने से पाप उसी प्रकार एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में पहुँच जाते हैं (संक्रमित हो जाते हैं) जैसे जल पर तेल। यही बातें देवल एवं छागलेय (मिता०, याज्ञ. ६३।२६१; प्राय०प्र०प०११०; प्राय०वि०प० १४५, प्रायः मयूख २, भाग १,१०२८) आदि में व्यवहृत पायी जाती हैं। प्राय प्रकाश के मत से किसी व्यक्ति के पतित होने के लिए इन चारों का एक साथ व्यवहृत होना आवश्यक है; अलग-अलग व्यवहृत होने से पातित्य की प्राप्ति नहीं होती बल्कि केवल दोष उत्पन्न होता है। पराशर (११२५-२६) का कथन है कि कृतयुग में पतित से बातचीत करने से ही व्यक्ति पतित हो जाता है, त्रेता में उसे स्पर्श करने से, द्वापर में उसके घर में बने भोजन के ग्रहण से तथा कलि में पापमय कृत्य के वास्तविक सम्पादन से; कृत यग में किसी के पतित होने से जनपद का त्याग कर दिया जाता था, त्रेता में ग्राम, द्वापर में (पतित का) कुल एवं कलि में केवल वास्तविक कर्ता (अर्थात् पतित) त्याज्य होता है।
मध्यकाल के लेखकों ने संसर्गदोष के क्षेत्र को क्रमशः बहुत आगे बढ़ा दिया है, इसका कारण था संस्कार सम्बन्धी शुचिता की भावना पर अत्यधिक बल देना। उदाहरणार्थ, स्मृत्यर्थसार (पृ० ११२) का कहना है कि जो व्यक्ति महापातकी से संसर्ग रखनेवाले से संसर्ग रखता है, उसे प्रथम संसर्गकर्ता का आधा प्रायश्चित्त करना पड़ता है। यह ग्रंथ इसके आगे नहीं बढ़ पाता। मिताक्षरा (याज्ञ० ३।२६१) के अनुसार यद्यपि ऐसा संसर्गकर्ता पतित नहीं हो जाता तथापि उसे प्रायश्चित्त करना पड़ता है और यहां तक कि चौथे एवं पाँचवें संसर्गकर्ताओं को भी प्रायश्चित्त करना पड़ता है, यद्यपि वह अपेक्षाकृत हलका पड़ता जाता है। प्राय० प्रक० (पृ० १०९), प्रा० वि० (पृ० १६९-१७०) एवं प्रायश्चित्ततत्त्व (पृ० ५४७) ने आपस्तम्ब एवं व्यास के कुछ पद्य उद्धृत करके संसर्ग की सीमा को पर्याप्त प्रशस्त कर दिया है। आपस्तम्बस्मृति (३०१-३) का कथन है-“यदि कोई चांडाल चार वर्ण वालों में किसी के यहाँ अविज्ञात रूप में निवास करता है तो गृहस्वामी को ज्ञात हो जाने पर प्रायश्चित्त करना पड़ता है, प्रथम तीन उच्च वर्णों को चान्द्रायण या पराक तथा शूद्र को प्राजापत्य व्रत करना पड़ता है। जो व्यक्ति उसके घर में भोजन करता है, उसे कृच्छ व्रत करना पड़ता है; जो दूसरे संसर्गकर्ता के यहाँ बना भोजन करता है उसे आधा कृच्छ्र तथा जो इस अंतिम व्यक्ति के घर में बना भोजन करता है उसे चौथाई कृच्छ करना पड़ता है।" स्पष्ट है, मौलिक संसर्गकर्ता के अतिरिक्त क्रमशः तीन अन्य व्यक्तियों को प्रायश्चित्त करना पड़ता था। दया करके स्मृतिकारों ने मौलिक संसर्गकर्ता के संसर्ग में आनेवाले चौथे व्यक्ति पर प्रायश्चित्त की इतिश्री कर दी मत दिये हैं। परा० माध० (२, पृ.० ९०) का कथन है कि पराशर ने महापातकियों के संसर्ग में आनेवालों के लिए इस भावना से कोई प्रायश्चित्त व्यवस्थित नहीं किया कि कलियुग में संसर्गदोष कोई पाप नहीं है और इसी से कलियुग में कलिवर्यों की संख्या में एक अन्य स्मृति ने 'पतित के संसर्ग से उत्पन्न अशुचिता' एक अन्य कलिवयं जोड़ दिया है। मक्ताफल (प्रायश्चित्त, प०८९७-८९८) ने माधव के इन शब्दों को मानो मान्यता दे दी है और इस विषय में
ण भी एकत्र कर डाले हैं। निर्णयसिन्ध ने पतित-संसर्ग कोदोष अवश्य माना है किन्तु संसर्गकर्ता को पतित नहीं कहा है (३, पृ० ३६८)।
यद्यपि बहुत-से अपराध महापातक की परिभाषाओं के अन्तर्गत नहीं बैठ पाते, तथापि स्मृतियों ने उन्हें तीन समताओं से महापातकों के जैसा ही निन्दित माना है। उदाहरणार्थ, याज्ञ० (३।२५१) ने स्पष्ट कहा है कि (सोम)
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