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________________ १३३६ धर्मशास्त्र का इतिहास है। त्रिस्थलीसेतु ने इसकी एक अन्य व्याख्या भी की है। रामतापनीयोपनिषद् एवं पद्म० में मन्त्र यह है--"श्रीरामरामरामेति" (त्रिस्थलीसेतु, पृ० २९१) । २ प्रयाग के अन्तर्गत बहत-से उपतीर्थ आते हैं, जिनमें वट (अक्षय वट) सर्वोच्च है। अग्नि० (१११११३) में आया है--'जो व्यक्ति वट के मूल में या संगम में मरता है वह विष्णु के नगर में पहुँचता है।' वट के मूल में मरने के विषय में विशिष्ट संकेत मिलता है। कूर्म० (१।३७५८-९; पद्म०, आदि, ४३।११; तीर्थचिन्तामणि ) में आया है-- 'जो वटमूल में मरता है वह सभी स्वर्ग लोकों का अतिक्रमण करके रुद्रलोक में जाता है।' प्रयाग के उपतीर्थ निम्न हैं-- (१) कम्बल एवं अश्वतर नामक दो नाग, जो एक मत से यमुना के विपुल (विस्तृत) तट पर हैं और दूसरे मत से यमुना के दक्षिणी तट पर हैं (वनपर्व ८५।७७; मत्स्य०१०६।२७; पद्म०, आदि० ३९।६९; अग्नि० ११११५ एवं कूर्म० १।३७।१९); (२)गंगा के पूर्वीय तट पर प्रतिष्ठान, जो वनपर्व ८५।७७ का सामुद-कूप है (मत्स्य० १०६।३०; कूर्म० ११३७।२२; पद्म०, आदि, ४३।३०)। वनपर्व (८५।११८) से प्रकट होता है कि प्रतिष्ठान प्रयाग का ही दूसरा नाम है; (३) सन्ध्यावट (मत्स्य० १०६।४३; कूर्म० ११३७।२८ एवं अग्नि० १११।१३); (४) हंसप्रपतन जो प्रतिष्ठान के उत्तर एवं गंगा के पूर्व है (मत्स्य० १०६।३२; कूर्म० ११३७।२४; अग्नि०१११।१०; पद्म०, आदि, ३९।८० एवं ४३।३२); (५) कोटितीर्थ (मत्स्य० १०६।४४; कर्म० ११३७।२९; अग्नि० १११।१४; पद्म०, आदि, ४३।४४); (६) भोगवती जो वासुकि के उत्तर प्रजापति की वेदी है (वनपर्व ८५१७७; मत्स्य० १०६।४६; अग्नि ११११५, पद्म०, आदि, ३९७९ एवं ४३।४६; (७) दशाश्वमेधक (मत्स्य० १०६।४६ एवं पद्म०, आदि, ३९ ८०); (८) उर्वशीपुलिन, जहाँ पर आत्म-त्याग करने से विभिन्न फल प्राप्त होते हैं (मत्स्य० १०६।३४-४२; पद्म आदि, ४३॥३४-४३; अग्नि० १११११३; कर्म० ११३७।२६-२७); (९) ऋणप्रमोचन, यमुना के उत्तरी तट पर तथा प्रयाग के दक्षिण (कूर्म० ११३८।१४; पद्म०, आदि, ४४।२०); (१०) मानस, गंगा के उत्तरी तट पर (मत्स्य० १०७।९; पद्म०, आदि, ४४.२ एनं अग्नि० १११११४); (११) अग्नितीर्थ, यमुना के दक्षिणी तट पर (मत्स्य० १०८।२७; कूर्म० ११३९।४: पद्म०, आदि, ४५।२७); (१२) विरज, यमुना के उत्तरी तट पर (पद्म०, आदि. ४५।२९) (१३) अनरक, जो धर्मराज के पश्चिम है (कूर्म० १।३९।५)। पुराणों में आया है कि यदि व्यक्ति तीर्थयात्रा में ही मर जाता है, किन्तु मरते समय प्रयाग का स्मरण करता रहता है तो वह प्रयाग में न पहुँचने पर भी महान फल पाता है। मत्स्य० (१०५।८-१२) में आया है कि जो व्यक्ति अपने देश में या घर में या तीर्थयात्रा के क्रम में किसी वन में प्रयाग का स्मरण करता हआ मर जाता है तो वह तब भी ब्रह्मलोक पाता है। वह वहाँ पहुँचता है जहाँ के वृक्ष सभी कामफल देनेवाले होते हैं, जहाँ की पृथिवी हिरण्यमयी होती है और जहाँ ऋषि, मुनि एवं गिद्ध रहते हैं। वह मन्दाकिनी के तट पर सहस्रों स्त्रियों से आवृत रहता है और ऋषियों की संगति का आनन्द लेता है; जब वह लौटकर इस पृथिवी पर आता है तो जम्बूद्वीप का राजा होता है। अधिकांश तीर्थों में यात्री को श्राद्ध करना पड़ता है। विष्णुधर्मसूत्र (अध्याय ८५) ने ऐसे ५५ तीर्थों का उल्लेख किया है। कल्पतरु (तीर्थ), गंगावाक्यावली, तीर्थचिन्तामणि एवं अन्य निबन्धों ने इस विषय में देवीपुराण ४२. रामतापनीये तु श्रीराममन्त्र एव तारकशब्दार्थ उक्तः । मुमूर्षोदक्षिणे कर्णे यस्य कस्यापि वा स्वयम् । उपदेश्यसि मन्मन्त्रं स मुक्तो भविता शिव ॥ पद्धे तु श्रीशब्दपूर्वकस्त्रिरावृत्तो रामशब्द एव तारकतयोक्तः । मुमूर्षोमणिकर्ण्यन्तर|दकनिवासिनः। अहं दिशामि ते मन्त्रं तारकं ब्रह्मवाचकम्। श्रीरामरामरामेति एतत्तारकमुच्यते॥ त्रिस्थलीसेतु (पृ० २९१)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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