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________________ अध्याय १२ गङ्गा गङ्गा पुनीततम नदी है और इसके तटों पर हरिद्वार, कनखल, प्रयाग एवं काशी जैसे परम प्रसिद्ध तीर्थ अवस्थित हैं, अतः गंगा से ही आरम्भ करके विभिन्न तीर्थों का पृथक्-पृथक् वर्णन उपस्थित किया जा रहा है। हमने यह देख लिया है (गत अध्याय में) कि प्रसिद्ध नदीसूक्त (ऋ० १०।७५।५-६) में सर्वप्रथम गंगा का ही आह्वान किया गया है। ऋ० (६।४५।३१) में 'गाय' शब्द आया है जिसका सम्भवतः अर्थ है 'गंगा पर वृद्धि प्राप्त करता हुआ।" शतपथ ब्राह्मण (१३।५।४।११ एवं १३) एवं ऐतरेय ब्राह्मण (३९।९) में गंगा एवं यमुना के किनारे पर भरत दौष्यन्ति की विजयों एवं यज्ञों का उल्लेख हुआ है। शतपथ ब्राह्मण (१३:५।४।११ एवं १३) में एक प्राचीन गाथा का उल्लेख है-'नाडपित् पर अप्सरा शकुन्तला ने भरत को गर्भ में धारण किया, जिसने सम्पूर्ण पृथिवी को जीतने के उपरान्त इन्द्र के पास यज्ञ के लिए एक सहस्र से अधिक अश्व भेजे।' महाभारत (अनुशासन० २६।२६-१०३) एवं पुराणों (नारदीय, उत्तरार्ध, अध्याय ३८-४५ एवं ५१।१-४८; पद्म० ५।६०।१-१२७; अग्नि० अध्याय ११०; मत्स्य०, अध्याय १८०-१८५; पद्म०, आदिखण्ड, अध्याय३३-३७) में गंगा की महत्ता एवं पवित्रीकरण के विषय में सैकड़ों प्रशस्तिजनक श्लोक हैं । स्कन्द (काशीखण्ड, अध्याय २९।१७-१६८) में गंगा के एक सहस्र नामों का उल्लेख है। यहाँ पर उपर्युक्त ग्रन्थों में दिये गये वर्णनों का थोड़ा अंश भी देना संभव नहीं है। अधिकांश भारतीयों के मन में गंगा जैसी नदियों एवं हिमालय जैसे पर्वतों के दो स्वरूप घर कर बैठे हैं--भौतिक एवं आध्यात्मिक । विशाल नदियों के साथ दैवी जीवन की प्रगाढ़ता संलग्न हो ही जाती है। टेलर ने अपने ग्रन्थ 'प्रिमिटिव कल्चर' (द्वितीय संस्करण, पृ० ४७७) में लिखा है-'जिन्हें हम निर्जीव पदार्थ कहते हैं, यथा नदियाँ, पत्थर, वृक्ष, अस्त्र-शस्त्र आदि, वे जीवित, बुद्धिशाली हो उठते हैं, उनसे बातें की जाती हैं, उन्हें प्रसन्न किया जाता है और यदि वे हानि पहुँचाते हैं तो उन्हें दण्डित भी किया जाता है।' गंगा के माहात्म्य एवं उसकी तीर्थयात्रा के विषय में पृथक्-पृथक् ग्रन्थ प्रणीत हुए हैं। यथा गणेश्वर (१३५० ई०) का गंगापत्तलक, मिथिला के राजा पद्मसिंह की रानी विश्वासदेवी की गंगावाक्यावलो, गणपति की गंगाभक्ति-तरंगिणी एवं वर्धमान का गंगाकृत्यविवेक। इन ग्रन्थों की तिथियाँ इस महाग्रन्थ के अन्त में दी हई हैं। ___ वनपर्व (अध्याय ८५) ने गंगा की प्रशस्ति में कई श्लोक (८८-९७) दिये हैं, जिनमें कुछ का अनुवाद यों है-“जहाँ भी कहीं स्नान किया जाय, गंगा कुरुक्षेत्र के बराबर है। किन्तु कनखल की अपनी विशेषता है और प्रयाग में इसकी परम महत्ता है। यदि कोई सैकड़ों पापकर्म करके गंगा-जल का अवसिंचन करता है तो गंगा-जल उन दुष्कृत्यों को उसी प्रकार जला देता है, जिस प्रकार अग्नि ईंधन को। कृत युग में सभी स्थल पवित्र थे , त्रेता में पुष्कर सबसे अधिक पवित्र था, द्वापर में कुरुक्षेत्र एवं कलियुग में गंगा। नाम लेने पर गंगा पापी को पवित्र कर देती है, इसे देखने १. अधि बृयुःपणीनां वषिष्ठे मूर्धन्नस्थात् । उरु: कक्षो न गाडग्यः ॥ऋ० (६।४५।३१) । अन्तिम पाद का अर्थ है गंगा के तटों पर उगी हुई घास या झाड़ी के समान।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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