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________________ तीर्थयात्रा के पूर्वकृत्य १३१९ ३१००० श्लोकों में ४००० श्लोक तीर्थ-सम्बन्धी हैं; वराह० में कुल ९६१४ श्लोक हैं जिनमें ३१८२ श्लोक तीर्थ के विषय में हैं (जिनमें १४०० श्लोक केवल मथुरा के विषय में हैं) और मत्स्य० के १४००२ श्लोकों में १२०० श्लोक तीर्थ-सम्बन्धी हैं। इसके अतिरिक्त निम्न निबन्ध एवं तीर्थ-सम्बन्धी ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। लक्ष्मीधर के कल्पतरु का तीर्थविवेचन काण्ड; हेमाद्रि की चतुर्वर्ग-चिन्तामणि का तीर्थखण्ड (जो अभी उपलब्ध नहीं हुआ है); वाचस्पति (१४५०-१४८० ई०) की तीर्थचिन्तामणि ; नृसिंहप्रसाद (लगभग १५००ई०) का तीर्थसार; नारायण भट्ट का त्रिस्थलीसेतु (१५५०-१५८० ई०); टोडरानन्द (१५६५-१५८९ ई०)का तीर्थसौख्य ; रघुनन्दन (१५२०-१५७०ई०) का तीर्थतत्त्व या तीर्थयात्रा-विधितत्त्व; मित्र मिश्र (१६१०-१६४० ई०) का तीर्थप्रकाश; भट्टोजि (लगभग १६२५ ई०) का त्रिस्थलीसेतुसारसंग्रह; नागेश का त्रिस्थलीसेतुसारसंग्रह; नागेश या नागोजि का तीर्थेन्दुशेखर । बहुतसे तीर्थ-सम्बन्धी ग्रन्थ अभी प्रकाशित नहीं हैं जिनमें अनूपसिंह (बीकानेर) की आज्ञा से प्रणीत अनन्त भट्ट का तीर्थरत्नाकर सम्भवतः सबसे बड़ा है । इसके अतिरिक्त विशिष्ट तीर्थों पर भी पृथक्-पृथक् ग्रन्थ हैं, यथा--विद्यापति (१४००-१४५० ई०) का गंगावाक्यावली नामक ग्रन्थ ; सुरेश्वराचार्य का काशीमृतिमोक्ष-विचार; रघुनन्दन की गयाश्राद्धपद्धति एवं पुरुषोत्तमक्षेत्रतत्त्व। इस स्थल पर हमने प्रकाशित ग्रन्थों का ही विशेष उल्लेख किया है। ___तीर्थयात्रा के पूर्व के कृत्यों का लेखा जो पुराणों एवं निबन्धों में दिया हुआ है, हम एक ही स्थान पर दे रहे हैं। तीर्थयात्रा करने की भावना के परिपक्व हो जाने के उपरान्त किसी एक निश्चित दिन व्यक्ति को केवल एक बार भोजन करना चाहिए; दूसरे दिन उसे वपन कराकर (जैसा कि अधिकांश निबन्धों में आया है) उपवास करना चाहिए; उपवास के दूसरे दिन उसे दैनिक धर्मों का पालन करना चाहिए; 'अमुक-अमुक स्थान की मैं तीर्थयात्रा करूंगा एवं तीर्थयात्रा की निर्विघ्न समाप्ति के लिए गणेश एवं अपने अधिष्ठाता देवों की पूजा करूँगा' की घोषणाया संकल्प करना चाहिए तथा पाँच या सोलह उपचारों के साथ गणेश, नवग्रहों एवं अपने प्रिय देवों की पूजा करनी चाहिए; "तब अपने गृह्यसूत्र के अनुसार पर्याप्त घृत के साथ पार्वणश्राद्ध करना चाहिए, कम-से-कम तीन ब्राह्मणों का सम्मान करना चाहिए तथा उन्हें धनदान करना चाहिए। इसके उपरान्त, जैसा कि ऊपर कहा जा चका है, उसे यात्री का परिधान धारण करना चाहिए। तब ग्राम की प्रदक्षिणा (कम-से-कम अपने घर की अवश्य) करनी चाहिए, तब दूसरे ग्राम में, जो एक कोश (दो या ढाई मील) से अधिक दूर न हो, पहुँचना चाहिए और तब श्राद्ध से बचे हुए भोजन एवं घृत से उपवास तोड़ना चाहिए (यह केवल गया की यात्रा में होता है)। अन्य तीर्थों की यात्रा में वह अपने घर में भी उपवास तोड़ सकता है। इसके उपरान्त उसे प्रस्थान कर देना चाहिए। दूसरे दिन उसे नये वस्त्र के सहित स्नान करके यात्री-परिधान पहनना चाहिए और पूर्वाभिमुख हो, अपराह्न में, यथासम्भव नंगे पैर प्रस्थान करना चाहिए। यहाँ पर दो मत हैं। एक मत यह है कि जिस दिन व्यक्ति किसी तीर्थ में पहुँचता है उस दिन उसे उपवास करना चाहिए, दूसरा मत यह है कि तीर्थ में पहुंचने के एक दिन पूर्व ही उपवास करना चाहिए। पहले मत के अनुसार उसे उपवास के दिन श्राद्ध करना चाहिए और उस स्थिति में वह भोजन नहीं कर सकता, केवल पके भोजन को सूंघ सकता है। कल्पतरु (तीर्थ, पृ०११) एवं तीर्थचि० (पृ० १४) ने देवल को उद्धृत कर कहा है कि तीर्थ में पहुँचने पर उपवास आवश्यक नहीं है, किन्तु यदि किया जाय तो विशेष फल की प्राप्ति होती है। ६४. सोलह एवं पाँच उपचारों के लिए देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय १९ । ब्रह्मवैवर्तपुराण (ब्रह्मखण्ड, २६।९०-९२) ने १६, १२ या ५ उपचारों का वर्णन यों किया है--आसनं वसनं पाद्यमध्यमाचमनीयकम् । पुष्पं चन्दनधूपं च दीपं नैवेद्यमुत्तमम् ॥ गन्धं माल्यं च शय्यां च ललिता सुविलक्षणाम् । जलमन्नं च ताम्बूलं साधारं देयमेव च ॥ गन्धानतल्पताम्बूलं विना द्रव्याणि द्वादश। पाद्याध्यंजलनैवेद्यपुष्पाण्येतानि पंच च ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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