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________________ १०२४ धर्मशास्त्र का इतिहास को जान-बूझकर मार डालने से किसी भी प्रायश्चित्त से पाप का छुटकारा नहीं हो सकता। ब्राह्मण के अतिरिक्त तीन वर्णों द्वारा दुष्कर्मों के विषय में च्यवन आदि की स्मृतियों ने पाँच के अतिरिक्त अन्य महापातक भी निर्धारित किये हैं, यथा-क्षत्रियों के लिए अदण्ड्य को दण्डित करना एवं रणक्षेत्र से भाग जाना; वैश्यों के लिए झूठा मान (बाट) एवं तुला रखना; शूद्रों के लिए मांसविक्रय, ब्राह्मण को घायल करना, ब्राह्मणी से संभोग करना एवं कपिला (कालीभूरी) गाय का दूध पीना। देखिए दीपकलिका (याज्ञ० ३।२२७)। यदि औषध-प्रयोग में औषध, तेल या भोजन देने तथा किसी स्नायु की शल्य-क्रिया से ब्राह्मण या कोई अन्य व्यक्ति था गाय मर जाय तो शिक्षित एवं दक्ष वैद्य को कोई अपराध नहीं लगता।" किन्तु यह बात उस वैद्य के लिए नहीं है जो मिथ्याचिकित्सक है। याज्ञ० (२२२४२) ने उसके लिए कई प्रकार के दण्डों की व्यवस्था दी है। यदि कोई ब्राह्मण अपने पुत्र, शिष्य या पत्नी को किसी अपराध के कारण कोई शारीरिक दण्ड दे जिससे वे मर जायं तो उसे कोई पाप नहीं होता (भविष्यपुराण, प्राय० वि० पृ० ५८; अग्निपुराण १७३।५)। दण्ड का प्रयोग पीठ पर रस्सी या बाँस की छड़ी से होना चाहिए (सिर या छाती पर कभी नहीं), ऐसा गौतम (२।४८-५०), आप० ध० सू० (११२।८।२९-३०), मनु (८।२९९-३०० : मत्स्यपुराण २२७/१५२-१५४), विष्ण (७११८१-८२) एवं नारद (अभ्युपेत्याशुश्रूषा १३-१४) का कथन है। किन्तु मनु (८।३००) का कथन है कि यदि इन नियन्त्रणों का अतिक्रमण हो तो अपराधी को चोरी का दण्ड मिलना चाहिए। और देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अ०७। प्राचीन एवं मध्य काल के धर्मशास्त्रकारों के समक्ष एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह रहा है कि क्या आत्म-रक्षा के लिए कोई व्यक्ति आततायी ब्राह्मण की हत्या कर सकता है? क्या ऐसा करने से पाप लगेगा? या क्या उसे राजा दण्डित कर सकता है ? इस विषय में विभिन्न मत हैं और हमने इस पर इस ग्रन्थ के खण्ड २ अध्याय ३ एवं खण्ड ३ अध्याय २३ में कुछ सीमा तक विचार कर लिया है। मिताक्षरा का निष्कर्ष बहुमत का द्योतक है। यदि ब्राह्मण आततायी आग लगाने, विष देने या खेत उजाड़ने की इच्छा से आता है, तो आत्म-रक्षार्थ कोई उसका विरोध कर सकता है, किन्तु यदि वह आक्रामक ब्राह्मण मर जाता है और आत्मरक्षार्थी को उसे मार डालने की कोई इच्छा नहीं थी तो राजा उसे (आत्मरक्षार्थी को) नहीं दण्डित करता, उसे केवल हलका प्रायश्चित्त कर लेना पड़ता है, अर्थात् वह ब्रह्महत्या का अपराधी नहीं होता (मिताक्षरा, याज्ञ० २।२१)। (२) सुरापान यह महापातक कहा गया है। 'सुरा' शब्द वेद में कई बार आया है (ऋग्वेद ११११६।७; १११९२१०ः ७।८६।६; ८।२।१२; १०।१०७।९)। इसे द्यूत के समान ही पापमय माना गया है (७।८६।६)। सम्भवतः यह मधु या किसी अन्य मधुर पदार्थ से बनती थी (१।११६।६-७)। यह उस सोमरस से भिन्न है जो देवों को अर्पित होता था तथा जिसका पान सोमयाजी ब्राह्मण पुरोहित करते थे। देखिए तैत्तिरीय संहिता (२।५।१।१), वाजसनेयी संहिता (१९।७) एवं शतपथब्राह्मण (५।१।५।२८)। इस ग्रन्थ में आया है-"सोम सत्य है, समृद्धि है और प्रकाश है; सुरा १४. क्रियमाणोपकारे तु मृते विप्रे न पातकम् । याज्ञ० (३।२८४); औषधं स्नेहमाहारं दवद् गोब्राह्मणादिषु । वीयमाने विपत्तिः स्यान्न स पापेन लिप्यते ॥ संवर्त (१३८; विश्वरूप, याज्ञ० ३।२६२; मिता०, या० ३३२२७; प्राय० विवेक, पृ० ५६)। और देखिए अग्निपुराण (१७३।५)-औषधाशुपकारे तु न पापं स्यात् कृते मृते। पुत्रं शिष्यं तथा भायां शासतो न मृते ह्ययम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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