SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२९८ धर्मशास्त्र का इतिहास मार्ग का द्योतक है। जो लोग श्राद्ध कर्म में विश्वास रखते हैं और यह समझते हैं कि ऐसा करने से मृत को शान्ति मिलती है, उन्हें कम विस्तार के साथ इसका सम्पादन करना चाहिए और मनु ( ३।१२५ - १२६), कूर्म ० ( २२२१२७) एवं पद्म (५/९/९८ ) के शब्द स्मरण रखने चाहिए, जो इस प्रकार हैं--श्राद्ध में अधिक व्यय नहीं करना चाहिए, विशेषतः आमन्त्रित होनेवाले ब्राह्मणों की संख्या में। " जिन लोगों का विश्वास आधुनिक भावनाओं एवं अंग्रेजी शिक्षा के कारण हिल उठा है या टूट चुका है, या जिन लोगों का कर्म एवं पुनर्जन्म में अटल विश्वास है उन्हें एक बात स्मरण रखनी है। श्राद्ध के विषय में एक धारणा प्रमुख है और वह प्रशंसा के योग्य भी है, वह है अपने प्रिय एवं सन्निकट सम्बन्धियों के प्रति स्नेह एवं श्रद्धा की भावना। वर्ष में एक दिन अपने प्रिय एवं निकट के सम्बन्धियों को स्मरण करना, मृत की स्मृति में सम्बन्धियों, मित्रों एवं विद्वान् लोगों को भोजन के लिए आमन्त्रित करना, विद्वान् किन्तु धनहीन, सच्चरित्र तथा सादे जीवन एवं उच्च विचार वाले व्यक्तियों को दान देना एक अति सुन्दर आचरण है। ऐसा करना अतीत की परम्पराओं के अनुकूल होगा और उन आचरणों एवं व्यवहारों को, जो आज निर्जीव एवं निरर्थकसे लगते हैं, पुनर्जीवित एवं अनुप्राणित करने के समान होगा। बहुत प्राचीन काल से हमारे विश्वास के तात्त्विक दृष्टिकोणों एवं धारणाओं के अन्तर्गत ऋषियों, देवों एवं पितरों से सम्बन्धित तीन ऋणों की एक मोहक धारणा भी रही है। पितृ ऋण पुत्रोत्पत्ति से चुकता है, क्योंकि पुत्र पितरों को पिण्ड देता है। यह एक अति व्यापक एवं विशाल धारणा है। गया में तिलयुक्त जल के तर्पण एवं पिण्डदान के समय जो कहा जाता है उससे बढ़कर कौन-सी अन्य उच्चतर भावना होगी ? कहा गया है-'मेरे वे पितर लोग, जो प्रेतरूप में हैं, तिलयुक्त यव (जी) के पिण्डों से तृप्त हों, और प्रत्येक वस्तु, जो ब्रह्मा से लेकर तिनके तक चर हो या अचर, हमारे द्वारा दिये गये जल से तृप्त हो ।' यदि हम इस महान् उक्ति के तात्पर्य को अपने वास्तविक आचरण में उतारें तो यह सारा विश्व एक कुटुम्ब हो जाय । अतः युगों से संचित जटिल बातों को त्यागते जाते हुए आज के हिन्दुओं को चाहिए कि वे धार्मिक कृत्यों एवं उन उत्सवों के, जिन्हें लोग भ्रामक ढंग से समझते आ रहे हैं, भीतर पड़े हुए सोने को न ठुकरायें। आज भी बहुत-से विद्वान् महानुभाव लोग अपनी माता एवं पिता के प्रति श्रद्धा भावना को अभिव्यक्त करते हुए श्राद्ध कर्म करते हैं । ३७. द्वौ वैवे पितृकृत्ये श्रीनेकैकमुभयत्र ता । भोजयेदीश्वरोपीह न कुर्याद्विस्तरं बुधः ॥ पद्म० (५१९१९८ ) । जायमानो ह वै ब्राह्मणस्त्रिभिणव जायते ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो यज्ञेन देवेभ्यः प्रजया पितृभ्य एष वा अनृणो यः पुत्री यज्वा ब्रह्मचारिवासी । तं० सं० (६|३|१०|५ ) ; ऋणमस्मिन् संनयत्यमृतत्वं च गच्छति । पिता पुत्रस्य जातस्य पश्येवेज्जीवतोमुखम् ।। ऐ० ब्रा० ( ३३|१) । इस विषय में इस ग्रन्थ के खण्ड ३, अध्याय में लिखा जा चुका है और हम पुनः गया श्राद्ध में इस पर विचार करेंगे। ये केचित्प्रेतरूपेण वर्तन्ते पितरो मम । ते सर्वे तृप्तिमायान्तु सक्तुभिस्तिलमिश्रितैः ॥ आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं यत्किंचित्सचराचरम् । मया दत्तेन तोयेन तृप्तिमायातु सर्वशः ॥ वायु० (११०/६३६४) । मिलाइए वायु० (११०।२१-२२) एवं मेत्तसुत (सुत्तनिपात) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy