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________________ श्राव में दक्षिणा, शय्या आदि के दान का महत्व, उपपुत्रों का पिण्डदानाधिकार १२८९ चन्द्रोदय ; मार्कण्डेय० ३२।९१; वामनपुराण १४।१०६)। आश्वमेधिकपर्व (६२।२-५) में आया है कि वासुदेव ने अपनी बहिन के पुत्र अभिमन्यु का श्राद्ध किया और सहस्रों ब्राह्मणों को सोना, गौएँ, शय्याएँ, वस्त्र आदि दिये और उन्हें खिलाया। बृहस्पति ने एक विशिष्ट नियम यह दिया है कि पिता के प्रयोग में आये हुए वस्त्र, अलंकार, शय्या आदि एवं वाहन (घोड़ा आदि) आमन्त्रित ब्राह्मणों को चन्दन एवं पुष्पों से सम्मानित कर दान रूप में दे देने चाहिए। और देखिए अनुशासनपर्व (अध्याय ९६), जहाँ श्राद्ध-समाप्ति पर दिये जानेवाले छातों एवं जूतों आदि के दान पर प्रकाश डाला गया है। मृत द्वारा प्रयुक्त शय्या के दान के विषय में, जो मृत्यु के ११वें या १२वें दिन किया जाता है, कुछ लिखना श्यक है। गरुड (प्रेतखण्ड, ३४१६९-८९), पद्म० (सष्टिखण्ड, १०॥१२) एवं मत्स्य० (१८४१२-१४) ने किसी ब्राह्मण एवं उसकी पत्नी को दिये जानेवाले शय्या-दान की बड़ी प्रशंसा की है। मत्स्य० में आया है कि मरणाशौच की परिसमाप्ति के दूसरे दिन श्राद्धकर्ता को चाहिए कि वह विशिष्ट लक्षणों से युक्त शय्या का दान करे; उस पर मृत की स्वणिम प्रतिमा, फल एवं वस्त्र होने चाहिए; इसका सम्प्रदान ब्राह्मण-दम्पति को अलंकारों से सम्मानित करके करना चाहिए; तब मृत के कल्याण के लिए एक बैल छोड़ना (वृषोत्सर्ग करबा) चाहिए और कपिला गाय का दान करना चाहिए। गरुड० (प्रेत०, ३४।७३-८२) ने लम्बा उल्लेख किया है जो भविष्य (हेमाद्रि द्वारा उद्धृत) के श्लोकों के समान है। भविष्य० (हेमाद्रि एवं निर्णयसिन्धु, पृ० ५९६) ने इस दान के समय पढ़ने के निमित्त यह मन्त्र लिखा है'जिस प्रकार विष्णु की शय्या सागरपुत्री लक्ष्मी से शून्य नहीं होती, उसी प्रकार जन्म-जन्मान्तर में मेरी शय्या भी शून्य (सूनी) न हो।' प्राचीन काल में शय्या-दान लेना अच्छा नहीं माना जाता था और आजकल भी केवल दरिद्र ब्राह्मण (जो साधारणतः विद्वान् नहीं होते) या महापात्र ही यह दान ग्रहण करते हैं। पद्मपुराण ने शय्यादान अंगीकार करनेवाले की बड़ी भर्त्सना की है। इसमें आया है जो ब्राह्मण शय्या का दान लेता है उसे उपनयनसंस्कार पुनः करना चाहिए। वेद एवं पुराणों में शय्या-दान गहित माना गया है और जो लोग इसे ग्रहण करते हैं, वे नरकगामी होते हैं (सृष्टिखण्ड १०।१७-१८)। अब हम श्राद्ध-सम्बन्धित अन्य बातों की चर्चा करेंगे। अति प्राचीन काल में बारह प्रकार के पुत्रों को मान्यता दी गयी थी, जिनमें क्षेत्रज, पुत्रिकापुत्र एवं दत्तक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण थे।" इन सभी पुत्रों के दो पिता होते थे। प्रश्न था; वे किनको पिण्डार्पण करें? मदनपारिजात (पृ० ६०७-६०८) ने हारीतधर्मसूत्र का उद्धरण देकर व्याख्या की है। हारीत का कथन है—बिना क्षेत्र (खेत) के बीज नहीं जमता। जब दोनों आवश्यक हैं तो उत्पन्न पुत्र दोनों का है। इन दोनों (पिताओं) में उत्पन्न करने वाले (बीजदाता) का आवाहन पहले होता है और तब क्षेत्री का, वह (पुत्र) दोनों को पिण्ड (एक-एक) दे सकता है या वह केवल एक पिण्ड (पिता को) दे सकता है और उसी पिण्ड के लिए २१. पुत्रहीन व्यक्ति की पत्नी या विषवा से किसी सगोत्र (भाई या किसी अन्य सम्बन्धी) द्वारा या किसी अन्य असगोत्र द्वारा उत्पन्न पुत्र क्षेत्रज' कहलाता है। यह नियोग प्रथा से उत्पन्न पुत्र है। इसे उत्पन्न करनेवाला 'बीजी' कहलाता था और पत्नी के वास्तविक पति को 'क्षेत्रो' कहा जाता था। 'पुत्रिकापुत्र के दो प्रकार हैं-(१) पुत्रहीन पिता अपनी पुत्री को किसी अन्य से इस शर्त पर विवाहित करे कि उससे उत्पन्न पुत्र उसका (पिता का) पुत्र कहलाएगा (वसिष्ठ० १३१७ एवं मनु ९।१२७); (२) कन्या को ही पुत्र मान लिया जाय (बसिष्ठ० १७१६)। 'इत्तक' वह पुत्र है जिसे माता या पिता जल के साथ किसी अन्य को उसके पुत्र के रूप में दे देता है (मनु ९।१६८)। इन पुत्रों एवं अन्य पुत्रों के विशव विवेचन के लिए देखिए इस प्रन्य का खण्ड ३, अध्याय २७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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