SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२४४ धर्मशास्त्र का इतिहास विष्णु० ध० सू० (७९।११) ने व्यवस्था दी है कि आमंत्रित ब्राह्मणों के शरीर में अनुलेपन के लिए चन्दन कुंकुम, कपूर, अगुरु एवं पद्मक का प्रयोग करना चाहिए। ब्रह्मपुराण (२२०।१६५-१६६) ने कुष्ठ, जटामांसी, जातीफल, उशीर, मुस्ता आदि का उल्लेख श्राद्ध में प्रयुक्त होनेवाले सुगंधित पदार्थों के लिए किया है। श्राद्ध के लिए वजित एवं अवजित भोजनों के विषय में हमने ऊपर चर्चा कर ली है। मत्स्य० (१७।३०३६) में आया है कि दूध एवं दही तथा गाय के घृत एवं शक्कर से मिश्रित भोजन सभी पितरों को एक महीने तक संतुष्टि देता है। चाहे जो भी भोजन हो, गाय का दूध या घी या पायस (दूध में पकाया हुआ चावल) यदि दही से मिश्रित हो तो अक्षय फल प्राप्त कराता है। ब्रह्म० (२२०।१८२-१८४) ने भी कहा है कि वह खाद्य पदार्थ जो मीठा एवं तैलिक हो और थोड़ा खट्टा या तीता हो तो उसे श्राद्ध में देना चाहिए और ऐसे खाद्य पदार्थ जो अति खट्टे या नमकीन या तीते हों, त्याज्य हैं, क्योंकि वे आसुर (असुरों के योग्य) हैं। उरद के विभिन्न व्यंजनों पर अधिक बल दिया गया है। औशनसस्मृति ने धमकी दी है कि जो ब्राह्मण श्राद्ध-भोजन करते समय माष (उरद) का भोजन नहीं करता, वह मृत्यूपरान्त इक्कीस जन्मों तक पशु होता है। स्मृति च० ने एक स्मृतिवचन उद्धृत करते हुए कहा है कि वह श्राद्ध जिसमें माप के व्यंजन नहीं दिये जाते, असम्पादित-सा है। अति प्राचीन काल से ही लेखकों के बीच श्राद्ध के समय मांस दिये जाने के विषय में मतभेद रहा है। हमने इस ग्रन्थ के खण्ड २, अध्याय २२ में मांस भक्षण के विषय में विस्तार के साथ पढ़ लिया है। यहाँ पर हम श्राद्ध के समय मांस भक्षण के विषय में उसे दुहरा देना चाहते हैं। आप० ध० सू० (२।८।१९।१३-१५) ने व्यवस्था दी है कि नैयमिक श्राद्ध (प्रति मास सम्पादनीय) में मांसमिश्रित भोजन अवश्य होना चाहिए, सर्वोत्तम ढंग है घृत और मांस देना; इन दोनों के अभाव में तिल के तेल एवं शाकों का प्रयोग किया जा सकता है। वहीं सूत्र (२७।१६।२५ एवं २।७।१७।३)" यह भी कहता है कि श्राद्ध में गोमांस खिलाने से पितर लोग एक वर्ष के लिए संतुष्ट हो जाते हैं, भैस का मांस खिलाने से पितसंतुष्टि एक साल से अधिक की हो जाती है। यही नियम जंगली पशुओं (खरगोश आदि), ग्रामीण पशुओं (बकरी आदि) के मांस के विषय में भी है । पितृ-संतुष्टि अनन्त काल के लिए बढ़ जाती है यदि मेंड़े के चर्म पर बैठे हुए ब्राह्मणों को गेंड़े का मांस खिलाया जाय। यही बात'शतबलि' नामक मछली के मांस एवं वार्षीणस के मांस के विषय में भी है। वसिष्ठ (१११३४) में वचन आया है-'देवों या पितरों के कृत्य में आमंत्रित संन्यासी यदि मांस नहीं खाता तो वह उस पशु के शरीर के (जिसके मांस को वह नहीं खाता) बालों की संख्या के बराबर वर्षों तक नरक में रहता है। यहाँ तक कि विष्णुधर्मोत्तर पुराण (१।१४०।४९-५०) ने भी दृढतापूर्वक कहा है कि जो व्यक्ति श्राद्ध में भोजन करनेवालों की पंक्ति में परोसे गये मांस का भक्षण नहीं करता, वह नरक में जाता है। मनु (५।३५) एवं कूर्म० (२।१७।४०) ७४. यो नाश्नाति द्विजो माष नियुक्तः पितृकर्मणि । स प्रेत्य पशुतां याति सन्ततामेकविंशतिम् ॥ औशनसस्मृति (५, पृ० ५३१)। ७५. संवत्सरं गव्येन प्रीतिः। भूयांसमतो माहिषेण । एतेन ग्राम्यारण्यानां पशूनां मांस मेध्यं व्याख्यातम् । खगोपस्तरणे खडगमांसेनानन्त्यं कालम। तथा शतबलेमत्स्यस्य मांसेन वाणसस्य च। आप०५० स० (२१७ १६।२५ एवं २७७१७३३)। वार्षीणस या वाघ्रोणस को लाल बकरा कहा गया है जो 'त्रिपिन' (जिसके कान इतने लम्बे होते हैं कि जल पीते समय जल को स्पर्श करते हैं) होता है और जो बड़ी अवस्था का या झुण्ड में सबसे बड़ाहोता है। त्रिपिबमिन्द्रियक्षीणं यूथस्यानचरं तथा। रक्तवर्ण तु राजेन्द्र छागं वार्षीणसं विदुः॥ विष्णुधर्मोत्तर (१३१४११४८)। पानी पीते समय मुख एवं दोनों कानों से मानो पानी पिया जाता है, इसी से त्रिपिब नाम पड़ा (मेधातिथि, मनु ३।२७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy