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________________ १२३० धर्मशास्त्र का इतिहास उसे कुत्ते, श्रृगाल, भेड़िया, गिद्ध, कौआ, सारस एवं मोर का शरीर धारण करना पड़ा और अन्त में अश्वमेध यज्ञ में अवभृथ स्नान करने पर उसे मुक्ति मिली। उसी पुराण ने व्यवस्था दी है (३।१८।८७) कि नास्तिकों से बातचीत एवं स्पर्श नहीं करना चाहिए, विशेषतः धार्मिक कृत्य के समय या जब किसी पवित्र यज्ञ के लिए दीक्षा ली गयी हो। वायुपुराण (७८।२६ एवं ३१) ने कहा है कि नग्न व्यक्तियों को श्राद्ध देखने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए और उसने नग्न की परिभाषा यों दी है-तीन वेदों को सभी जीवों का संवरण (रक्षा करनेवाला आवरण) उद्घोषित किया गया है, अतः जो लोग मूर्खतावश वेदों का त्याग करते हैं वे नग्न कहलाते हैं; जो व्यर्थ जटा रखते हैं, व्यर्थ मण्डी होते हैं, जो व्यर्थ व्रत एवं निरुद्देश्य जप करते हैं वे नग्नादि कहलाते हैं।' जिस प्रकार कुछ देश श्राद्ध के लिए अयोग्य घोषित हैं, उसी प्रकार कुछ ग्रन्थों द्वारा कुछ देशों के कुछ ब्राह्मण श्राद्ध में निमंत्रित करने के अयोग्य घोषित किये गये हैं। उदाहरणार्थ मत्स्यपुराण का कहना है कि वे ब्राह्मण, जो कृतघ्न हैं, नास्तिक हैं म्लेच्छ देशों में निवास करते हैं या जो त्रिशक, करबीर, आन्ध्र, चीन, द्रविड़ एवं कोंकण देश में रहते हैं, उन्हें श्राद्ध के समय सावधानी से अलग कर देना चाहिए। हेमाद्रि (श्राद्ध, पृ० ५०५) ने सौरपुराण से यह उद्धत किया है कि 'अंग, वंग, कलिंग, सौराष्ट्र, गुर्जर, आभीर, कोंकण, द्रविड़, दक्षिणापथ, अवन्ती एवं मगध के ब्राह्मणों को श्राद्ध के समय नहीं बुलाना चाहिए।' उपर्युक्त दोनों उक्तियों को मिलाकर देखने से प्रकट होता है कि आज के भारत के आधे भाग के ब्राह्मणों को श्राद्ध में आमंत्रित करने के अयोग्य ठहराया गया है। किन्तु सम्भवतः यह सब उन ग्रंथों के लेखकों का दम्भ एवं पूर्वनिश्चित धारणाओं का द्योतक है। रुद्रघर के श्राद्धविवेक (पृ० ३९-४१) में श्राद्ध के लिए अयोग्य व्यक्तियों की सबसे बड़ी मुची पायी जाती है। श्राद्धकृत्य करते समय अचानक किसी अतिथि के आगमन पर उसके सम्मान के विषय में वराहपुराण एवं अन्य लोगों ने निम्न तर्क उपस्थित किया है। "योगी लोग न पहचान में आनेवाले विभिन्न रूप धारण कर पृथिवी पर विचरते रहते हैं और दूसरों का कल्याण करते रहते हैं; अतः बुद्धिमान् व्यक्ति को श्राद्ध सम्पादन के समय आये हुए अतिथि का सम्मान करना चाहिए।" और देखिए भविष्यपुराण (१।१८४।९-१०), हेमाद्रि (पृ० ४२७) एवं मार्कण्डेय ० (३६।३०-३१) । मार्कण्डेय • (३६।३०) में आया है कि अतिथि का गोत्र या शाखा या वेदाध्ययन नहीं पूछना चाहिए और न उसके शोभन एवं अशोभन आकार पर ध्यान देना चाहिए। हेमाद्रि (श्राद्ध, प०४३०-४३३) ने शिवधर्मोतर, विष्णुधर्मोत्तर एवं वायु (७१।७४-७५) पुराणों का हवाला दिया है कि देवगण, सिद्ध एवं योगी लोग ब्राह्मण अतिथियों के रूप में लोगों का कल्याण करने के लिए और यह देखने के लिए कि श्राद्ध किस प्रकार सम्पादित होते हैं, विचरण किया करते हैं। अतिथि की परिभाषा एवं अतिथिसत्कार-विधि तथा आवश्यकता के विषय में देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय २१। ४०. कृतघ्नानास्तिकांस्तद्वन्म्लेच्छदेशनिवासिनः। त्रिशंकुबर्बरद्राववीतद्रविडकोंकणान् (त्रिशंकुकरवीरान्ध्रचीनद्रविड० ?)। वर्जयेल्लिगिनः सर्वान श्राद्धकाले विशेषतः ॥ मत्स्य ० (१६।१६-१७, हेमाद्रि, श्रा०, पृ० ५०५; कल्पतरु, श्रा०, १० ९४)। ४१. योगिनो विविध रूपनराणामुपकारिणः । भ्रमन्ति पथिवीमेतामविज्ञातस्वरूपिणः ॥ तस्मादभ्यर्चयेत् प्राप्त श्राद्धकालेऽतिथि बुधः। श्राद्धकियाफलं हन्ति द्विजेन्द्रापूजितो हरिः॥ वराह० (१४॥१८-१९), विष्णुपुराण (१५ । २३-२४); मिलाइए वायुपुराण (७९।७-८); सिद्धा हि विप्ररूपेण चरन्ति पृथिवीमिमाम् । तस्मादतिथिमायान्तमभिगच्छेत् कृतांजलिः॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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