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________________ १२२८ धर्मशास्त्र का इतिहास शील-गुण । ऐसी उक्तियों की इस प्रकार व्याख्या की गयी है कि वे केवल तीर्थस्थलों पर किये गये श्राद्ध की ओर निर्देश करती हैं या वे केवल दान कर्म या अतिथियों के लिए प्रयुक्त हैं ( हेमाद्रि, श्राद्ध, पृ० ५१३ एवं बालंभट्टी, आचार, पृ० ४९४ ) । कुछ दशाओं में ब्राह्मण लोग अपांक्तेय ( पंक्ति में बैठने के अयोग्य या पंक्ति को अपवित्र करनेवाले) कहे गये हैं, यथा- शारीरिक एवं मानसिक दोष तथा रोग-व्याधि, कुछ विशिष्ट जीवन-वृत्तियाँ ( पेशे ), नैतिक दोष, अपराधी होने के कारण नास्तिक अथवा पाषण्ड धर्मों का अनुयायी होना, कुछ विशिष्ट देशों का वासी होना । आमंत्रित न होने योग्य ब्राह्मणों और अयांक्तेय या पंक्तिदूषक ब्राह्मणों में अन्तर दिखलाया गया है। उदाहरणार्थ, मित्र या सगोत्र ब्राह्मणों को साधारणतः नहीं बुलाना चाहिए, चाहे वे विद्वान् ही क्यों न हों, किन्तु ये लोग अपांक्तेय नहीं हैं । आप० घ० सू० (२।७।१७।२१) " का कहना है कि धवल या रक्तदोष-ग्रस्त, खल्वाट, परदारा से संबंध ए ेवाला, आयुधजीवीपुत्र, शूद्रसम ब्राह्मण का पुत्र (शूद्रा से उत्पन्न ब्राह्मण का पुत्र) — ये पंक्तिदूषक कहलाते हैं। इन्हें श्राद्ध में निमंत्रित नहीं करना चाहिए । वसिष्ठध० सू० (११।१९ ) ने भी एक संक्षिप्त सूची दी है - 'नग्न ( संन्यासी) से बचना चाहिए, उनसे भी जो श्वित्री (श्वेत कुष्ठ ग्रस्त ) हैं, क्लीब हैं, अंधे हैं, जिनके दाँत काले हैं, जो कोढ़ी हैं और जिनके नख विकृत हैं। गौतम ( १५ १६ १९), मनु ( ३।२५० - १६६), याज्ञ० ( ११२२२ - २२४), विष्णु घ० सू० (८२/३ - २९), अत्रि (श्लोक ३४५ - ३५९ एवं ३८५-३८८), बृहद्यम ( ३।३४-३८), बृहत्पराशर ( पृ० १४९ - १५० ), वृद्ध गौतम ( पृ० ५८०-५८३), वायु० (८३।६१-७०), अनुशासन ० ( ९०।६-११), मत्स्य ० ( १६।१४- १७), कूर्म० (२1२१।२३-४७), स्कन्द० (७।११२०५/५८-७२ एवं ६।२१७।११-२० ), वराह० ( १४।४-६), ब्रह्म० (२२०/१२७१३५), ब्रह्माण्ड ॰ (उपोद्घात १५।३९-४४ एवं १९/३० / ४१), मार्कण्डेय० (२८/२६-३०), विष्णुपुराण (३|१५| ५-८), नारद पुराण (पूर्वार्ध २८/११ - १८), सौर पुराण (२९।७-९) आदि ग्रंथों में श्राद्ध में आमंत्रण के अयोग्य लोगों की बड़ी भारी सूचियाँ दी हुई हैं। मनुस्मृति की सूची यहाँ उद्धृत की जा रही है। ऐसा ब्राह्मण आमंत्रित नहीं होना चाहिए जो निम्न प्रकार का है (१) चोर, (२) जाति से निकाला हुआ, (३) क्लाब, (४) नास्तिक, (५) ब्रह्मचारी (जो अभी वेद पढ़ रहा है और सिर के बाल कटाता नहीं बल्कि बाँध रखता है), (६) वेदाध्ययन न करनेवाला, (७) चर्मरोगी, (८) जुआरी, (९) बहुतों का एक पुरोहित, (१०) वैद्य, (११) देवपूजक (जो धन के लिए प्रतिमा-पूजा करता है), (१२) मांस बेचनेवाला, (१३) दुकान करनेवाला, (१४ एवं १५ ) किसी ग्राम या राजा का नौकर, (१६) विकृत नखों वाला, (१७) स्वाभाविक रूप से काले दाँतों वाला, (१८) गुरुविरोधी, (१९) पूताग्नियों को त्यक्त करनेवाला (श्रौत या स्मार्त अग्नियों को अकारण छोड़नेवाला), (२०) सूदखोर ( अधिक ब्याज खानेवाला), ३९. वित्री शिपिविष्टः परतल्पगाम्यायुधीयपुत्रः शूद्रोत्पन्नो ब्राह्मण्यामित्येते श्राद्ध भुंजानाः पंक्तिदूषका भवन्ति । आप० ध० सू० (२/७/१७/२१) । ब्राह्मण स्त्री और शूद्र पुरुष से उत्पन्न पुत्र बहुत-सी स्मृतियों में चाण्डाल कहा गया है । अतः उसे श्राद्ध में आमंत्रित करने के अयोग्य ठहराया गया है। कपदी ने "शूद्रो... ह्मण्याम्” नामक शब्दों की व्याख्या इस प्रकार की है— ऐसे ब्राह्मण पुरुष से उत्पन्न जो प्रथमतः शूद्र नारी से विवाह करने के कारण व्यवहारतः शूद्र हो गया है और तब ब्राह्मण नारी से विवाह करके अन्ततोगत्वा शूद्रा पत्नी से पुत्र उत्पन्न करता है और तब कहीं ब्राह्मण पत्नी से । यह अंतिम ( शूद्रसम ब्राह्मण का पुत्र) अपांक्तेय है- 'शूद्रोत्पन्नो ब्राह्मण्यां असमवर्णदारपरिग्रहे ब्राह्मण्यां पुत्रमनुत्पाद्य शूद्रायामुत्पादितपुत्र इति कपर्दी' ( कल्पतरु, श्रा०, १०९० ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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