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धर्मशास्त्र का इतिहास
ऋत के तीन स्वरूप हैं-- ( १ ) इसका तात्पर्य है "प्रकृति की गति" या "अखिल ब्रह्मांड में एक-सा सामान्य क्रम", (२) यज्ञ के संदर्भ में इसका तात्पर्य है "देवताओं की पूजा की सम्यक् एवं व्यवस्थित विधि”, (३) इसका तीसरा तात्पर्य है "मानव का नैतिक आचरण" । ऋत के इन तीन स्वरूपों पर प्रकाश डालने के लिए कुछ उदाहरण दिये जाते हैं। एक स्थान पर ऋग्वेद (४१२३०८-१० ) के तीन मंत्रों में ऋत शब्द बारह बार अपने व्यापक रूप के साथ आया है - "ऋत में पर्याप्त जल ( समृद्धियाँ एवं प्रीतिदान या उपहार ) हैं; ऋत-सम्बन्धी विचार (स्तुति) दुष्कृत्यों (पातकों ) का नाश करता है, ऋत के विषय में उत्तम एवं दीप्यमान (उन्मेषकारी) स्तुति (स्तोत्र ) मनुष्य के बधिर कानों में प्रवेश कर जाती है । ऋत के आश्रय स्थिर होते हैं; इसकी (भौतिक) अभिव्यक्तियाँ बहुत-सी हैं और शरीर (मनुष्य) के लिए सुखप्रद ( सौम्य ) हैं । ऋत के द्वारा वे (मनुष्य) भोजन की आकांक्षा करते हैं। गौएँ (सूर्य की किरणें ) ऋत द्वारा ऋत में प्रविष्ट हुई। जो ऋत पर विजय प्राप्त करता है, वह उसे पाता है। ऋत के लिए (स्वर्ग) एवं पृथिवी विस्तृत एवं गहरे हैं; (ये) दो अति उच्च गौएँ ( अर्थात् स्वर्ग एवं पृथिवी) ऋत के लिए दूध (कांक्षाएँ या उपहार ) देती हैं। इसी प्रकार अन्य मंत्र भी हैं, यथा-- ऋग्वेद (२०२८०४; १|१०५।१२; १।१६४।११; १।१२४।३; १।१२३/९; ४|५१।१; १।१३६।२; १।१२१।४ ) ।
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बहुत-से वैदिक देवता ऋत के दिक्पालों, प्रवर्तकों या सारथियों के रूप में वर्णित हैं। मित्र और वरुण ऋत के द्वारा ही विश्व पर राज्य करते हैं (ऋ० ५। ६३।७ ) ; मित्र, वरुण एवं अर्थमा ऋत के सारथि कहे गये हैं (८|६६।१२); तथा अदिति एवं भग ऋत के रक्षक हैं ( ६।५१।३) । अग्नि को ऋत का रथी ( ३।२।८), रक्षक (११११८; ३|१०|२; १०१८/५; १०।११८।७) और ऋतावान् (४।२।१) कहा गया है। सोम को ऋत का रक्षक (९१४८१४, ९२७३१८) और उसका आश्रयदाता (९१९७।२४) कहा गया है। ऋग्वेद ( ७३६६।१३ ) में आदित्यों को ऋतावान् ( प्रकृति के स्थिर क्रम के अनुसार कार्य करनेवाले), ऋतजात (ऋत से उत्पन्न ) एवं ऋतावृष (ऋत को बढ़ानेवाले या ऋत में आनन्द लेनेवाले) कहा गया है और वे अनृत के भयंकर विद्वेषी कहे गये हैं ।
ऋत एवं यज्ञ में अन्तर है। यह कोई विशिष्ट यज्ञिय कृत्य नहीं है और न यज्ञ का कोई विधान। यह सामान्य अर्थ में यज्ञ की सुव्यवस्थित गति अथवा व्यवस्था का द्योतक है। ऋग्वेद (४१३३४ ) में अग्नि को ऋतचित् (ऋत को भली भांति जाननेवाला या पालन करनेवाला ) कहा गया है, या उसे ( यज्ञ के ) ऋत को जानने के लिए उद्वेलित किया गया है; कई मंत्रों में 'ऋतेन, ऋतम्' जैसे शब्द आये हैं (४/३/९; ५। १५१२; ५/६८/४ ), जिनमें 'ऋतेन' का संभवत: अर्थ है यज्ञिय कृत्यों की सम्यक् गति तथा 'ऋतम्' का अर्थ है विश्व में व्यवस्थित (नियमित) क्रम । सोम को दशापवित्र (९/७३ | ९) पर फैलाया गया ऋत का सूत्र ( सूत या धागा ) कहा गया है। देखिए ऋग्वेद के ये मंत्र ११८४४, ४।१।१३, १७११३, १०/६७/२ एवं १० ३७११, जहाँ यज्ञों में ऋत के व्यापक सम्बन्ध की ओर निर्देश है।
२. ऋतस्य हि शुरुधः सन्ति पूर्वोर्ऋतस्य धीतिर्वृजिनानि हन्ति । ऋतस्य श्लोको बधिरा ततदं कर्णा बुधानः शुचमान आयोः ॥ ऋतस्य दृव्हा धरुणानि सन्ति पुरूणि चन्द्रा वपुषे वपूंषि । ऋतेन दीर्घमषणन्त पृक्ष ऋतेन गाव ऋतमाविवेशुः ॥ ऋतं येमान ऋतमिद्वनोत्यृतस्य शुष्मस्तुरया उ गव्युः । ऋताय पृथ्वी बहुले गभीरे ऋताय धेनू परमे दुहाते ॥ (ऋ० ४।२३।८-१० ) । निरुक्त ने ऋत का अर्थ 'जल' किया है और उसकी व्याख्या निम्न रूप से की है--ऋतस्य प्रशा वर्जनीयानि हन्ति ऋतस्य श्लोको बधिरस्यापि कर्णौ आतृणत्ति । बधिरः बद्धश्रोजः । कर्णौ बोधयन् दीप्यमानश्च आयोः अयनस्य मनुष्यस्य ज्योतिषो वा उदकस्य वा ।
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