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________________ १२१० धर्मशास्त्र का इतिहास कृत्य कृष्ण पक्ष की नवमी या दशमी को किया जाता है (खादिर० ३।५।१)। इसे पार० गृ० (३।३।३०), मनु (४/१५०) एवं विष्णु० (७४।१ एवं ७६।१) ने अन्वष्टका की संज्ञा दी है। अत्यन्त विशिष्ट बात यह है कि इस कृत्य में स्त्री पितरों का आह्वान किया जाता है और इसमें जो आहुतियां दी जाती हैं, उनमें सुरा, माँड़, अंजन, लेप एवं मालाएं भी सम्मिलित रहती हैं। यद्यपि आश्व० ग० (२५) आदि ने घोषित किया है कि अष्टका एवं अन्वष्टक्य मासिक श्राद्ध या पिण्डपितृयज्ञ पर आधारित हैं तथापि बौधा० ऋ० (३।१२।१), गोभिल० (४१४) एवं खादिर० (३।५।३५) ने कहा है कि अष्टका या अन्वष्टक्य के आधार पर ही पिण्डपितृयज्ञ एवं अन्य श्राद्ध किये जाते हैं। काठक० (६६।११६७, ६८।१ एवं ६९।१) का कथन है कि प्रथम श्राद्ध, सपिण्डीकरण जैसे अन्य श्राद्ध, पशुश्राद्ध (जिसमें पशु का मांस अर्पित किया जाता है) एवं मासिक श्राद्ध अष्टका की विधि का ही अनुसरण करते हैं। पिण्डपितृयज्ञ का सम्पादन अमावस्या के दिन केवल आहिताग्नि करता है। यह बात सम्भवतः उलटी थी, अर्थात् केवल थोड़े ही आहिताग्नि थे, शेष लोगों के पास केवल गृह्य अग्नियाँ थीं और उनसे भी अधिक बिना गृह्याग्नि के थे। यह सम्भव है कि सभी को पिण्डपितृयज्ञ के अनुकरण पर अमावस्या को श्राद्ध करना होता था। ज्यों-ज्यों पिण्डपितयज्ञ का सम्पादन कम होता गया, अमावस्या के दिन श्राद्ध करना शेष रह गया और सूत्रों एवं स्मृतियों में जो कुछ कहा गया है वह मासि-श्राठ के रूप में रह गया और अन्य श्राद्धों के विषय में सूत्रों एवं स्मृतियों ने केवल यही निर्देश किया कि क्या-क्या छोड़ देना चाहिए। इसी से मासि-श्राव ने प्रकृति की संज्ञा पायी और अन्य श्राद्ध विकृति (मासि-श्राद्ध के विभिन्न रूप) कहलाये। मासि-श्राद्ध में यज्ञ की अधिकांश बातें आवश्यक थीं और कुछ बातें, यथा-अयं देना, गन्ध, दीप आदि देना, जोड दी गयीं तथा कुछ अधिक विशद नियम निर्मित कर दिये गये। ___ अन्वष्टक्य का वर्णन आश्व० गृ० (२।५।२-१५) में इस प्रकार है-उसी मांस का एक भाग तैयार करके,२९ दक्षिण की ओर ढालू भूमि पर अग्नि प्रतिष्ठापित करके, उसे घेरकर और घिरी शाला के उत्तर में द्वार बनाकर, अग्नि के चारों ओर यज्ञिय घास (कुश) तीन बार रखकर, किन्तु उसके मूलों को उससे दूर रखकर, अपने वामांग को अग्नि की ओर रखकर उसे (कर्ता को) हवि, यथा-भात, तिलमिश्रित मात, दूध में पकाया हुआ भात, दही के साथ मीठा भोजन एवं मधु के साथ मांस रख देना चाहिए। इसके आगे पिण्डपितृयज्ञ के कृत्यों के समान कर्म करने चाहिए (आश्व० श्री० २।६)। इसके उपरान्त मीठे खाद्य पदार्थ को छोड़कर सभी हवियों के कुछ भाग को मधु के साथ अग्नि में डालकर उस हवि का कुछ भाग पितरों को तथा उनकी पलियों को सुरा एवं मॉड़ मिलाकर देना चाहिए। कुछ लोग हवि को गड्ढों में रखने को कहते हैं, जिनकी संख्या दो से छः तक हो सकती है। पूर्व वाले गड्ढों में पितरों को हवि दी जाती है और पश्चिम वालों में उनकी पत्नियों को। इस प्रकार वर्षा ऋतु के प्रौष्ठपद (भाद्रपद) की पूर्णिमा के पश्चात् कृष्ण पक्ष में मघा के दिन यह कृत्य घोषित किया गया है। इस प्रकार उसे (कर्ता को) प्रति मास (अन्वष्टका जैसा कृत्य) पितरों के लिए करना चाहिए और ऐसा करते हुए विषम संख्या पर ध्यान देना चाहिए (अर्थात् विषम संख्या में ब्राह्मण एवं तिथियां होनी चाहिए। उसे कम-से-कम नौ ब्राह्मणों या किसी भी विषम संख्या वाले ब्राह्मणों को भोजन देना चाहिए। मांगलिक अवसरों एवं कल्याणप्रद कृत्यों के सम्पादन पर सम संख्या में ब्राह्मणों को खिलाना चाहिए तथा अन्य अवसरों पर विषम संख्या में। यह कृत्य बायें से दाहिने किया जाता है, इसमें तिल के स्थान पर यव (जौ) का प्रयोग होता है।"२२ २१. उस पशु का मांस जो अष्टका के दिन काटा जाता है (आश्व० गृ० २।४।१३)। २२. 'वृद्धि' या 'आम्युवयिक' (समृद्धि या अच्छे भाग्य की ओर संकेत करनेवाले) श्राद्ध पुत्र की उत्पत्ति, पुत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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