SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्राद्ध कर्म के प्रचलन की प्राचीनता १२०५ संस्थापन विष्णु के वराहावतार के समय हुआ और विष्णु को पिता पितामह एवं प्रपितामह को दिये गये तीन पिण्डों में अवस्थित मानना चाहिए। इससे और आप० घ० सू० के वचन से ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व श्राद्ध-प्रथा का प्रतिष्ठापन हो चुका था और यह मानवजाति के पिता मनु के समान ही प्राचीन है। (ऋ० ८ ६३ । १ एवं ८|३०|३) । किन्तु यह ज्ञातव्य है कि 'श्राद्ध' शब्द किसी भी प्राचीन वैदिक वचन में नहीं पाया जाता, यद्यपि पिण्डपितृयज्ञ (जो आहिताग्नि द्वारा प्रत्येक मास की अमावस्या को सम्पादित होता था) १३, महापितृयज्ञ ( चातुर्मास्य या साकमेघ में सम्पादित) एवं अष्टका आरम्भिक वैदिक साहित्य में ज्ञात थे । कठोपनिषद् (१।३।१७ ) में 'श्राद्ध' शब्द आया है; 'जो भी कोई इस अत्यन्त विशिष्ट सिद्धान्त को ब्राह्मणों की सभा में या श्राद्ध के समय उद्घोषित करता है वह अमरता प्राप्त करता है।' 'श्राद्ध' शब्द के अन्य आरम्भिक प्रयोग सूत्र साहित्य में प्राप्त होते हैं । अत्यन्त तर्कशील एवं सम्भव अनुमान यही निकाला जा सकता है कि पितरों से सम्बन्धित बहुत ही कम कृत्य उन दिनों किये जाते थे, अतः किसी विशिष्ट नाम की आवश्यकता प्राचीन काल में नहीं समझी गयी। किन्तु पितरों के सम्मान में किये गये कृत्यों की संख्या में जब अधिकता हुई तो 'श्राद्ध' शब्द की उत्पत्ति हुई । श्राद्ध की प्रशस्तियों के कुछ उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं । बौ० घ० सू० (२/८1१ ) का कथन है कि पितरों के कृत्यों से दीर्घं आयु, स्वर्ग, यश एवं पुष्टिकर्म (समृद्धि) की प्राप्ति होती है । हरिवंश (१।२१।१ ) में आया हैश्राद्ध से यह लोक प्रतिष्ठित है और इससे योग (मोक्ष) का उदय होता है। सुमन्तु (स्मृतिच०, श्राद्ध, पृ० ३३३ ) का कथन है-श्राद्ध से बढ़कर श्रेयस्कर कुछ नहीं है।" वायुपुराण (३ | १४|१-४) का कथन है कि यदि कोई श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है तो वह ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र एवं अन्य देवों, ऋषियों, पक्षियों, मानवों, पशुओं, रेंगने वाले जीवों एवं पितरों के समुदाय तथा उन सभी को जो जीव कहे जाते हैं एवं सम्पूर्ण विश्व को प्रसन्न करता है। यम ने कहा है कि पितृपूजन से आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि ( समृद्धि), बल, श्री, पशु, सौख्य, धन, धान्य की प्राप्ति होती है ।" और देखिए (१।२७० ) । श्राद्धसार ( पृ० ६) एवं श्राद्धप्रकाश ( पृ० ११-१२) द्वारा उद्धृत विष्णुधर्मोत्तर में ऐसा कहा गया है कि प्रपितामह को दिया गया पिण्ड स्वयं वासुदेव घोषित है, पितामह को दिया गया संकर्षण तथा पिता को दिया गया प्रद्युम्न घोषित है और पिण्डकर्ता स्वयं अनिरुद्ध कहलाता है । शान्तिपर्व ( ३४५।२१ ) में कहा गया है कि विष्णु को तीनों पिण्डों में अवस्थित समझना चाहिए। कूर्मपुराण में आया है कि "अमावस्या के दिन पितर लोग वायव्य रूप धारण कर अपने पुराने निवास के द्वार पर आते हैं और देखते हैं कि उनके कुल के लोगों द्वारा श्राद्ध किया जाता है कि नहीं। ऐसा वे सूर्यास्त तक देखते हैं। जब सूर्यास्त हो जाता है, वे भूख एवं प्यास से व्याकुल हो निराश हो जाते हैं, चिन्तित हो याज्ञ० १३. 'पिण्डपितृयज्ञ' श्राद्ध ही है, जैसा कि गोभिलगृह्य० (४|४|१-२ ) में आया है— 'अन्वष्टक्यस्थालीपाकेन पिण्डपितृयज्ञो व्याख्यातः । अमावास्यां तच्छ्राद्धमितरवन्वाहार्यम् ।' और देखिए श्र० प्र० (१०४) । पिण्डपितृयज्ञ एवं महापितृयज्ञ के लिए देखिए इस ग्रन्थ का लण्ड २ अध्याय ३० एवं ३१ । १४. पित्र्यमायुष्यं स्वग्यं यशस्यं पुष्टिकर्म च । बौ० ६० सू० (२२८|१) । श्राद्धे प्रतिष्ठितो लोकः श्राद्धं योगः ' प्रवर्तते ॥ हरिवंश (१।२१।१) । श्राद्धात्परतरं नान्यच्छ्रेयस्करमुदाहृतम् । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन श्राद्धं कुर्याद्विचक्षणः ॥ सुमन्तु (स्मृति०, भाद्ध, ३३३) । १५. आयुः पुत्रान् यश: स्वर्ग कीर्ति पुष्टिं बलं श्रियः । पशून् सौल्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात् ॥ यम (स्मृतिच०, आद्ध, पृ० ३३३ एवं श्राद्धसार ५० ५) । ऐसा ही श्लोक याश० (१।२७०, मार्कण्डेयपुराण ३२०३८) एवं शंख (१४१३३ ) में भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy