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पशास्त्र का इतिहास 'शान्ति' के जलाशौच पूर्णतया दूर नहीं होता। सामवेद के अनुयायियों को 'शान्ति के लिए वामदेवगान पढ़ना चाहिए या गायत्री को आदि एवं अन्त में कहकर सामवेद के अन्तिम मन्त्र (स्वस्ति न इन्द्रः) के साथ 'कयानश्चित्र, 'कस्त्वा सत्य,''अभी खूण:' का पाठ करना चाहिए। ये सभी मन्त्र सामवेदियों के लिए हैं। यजुर्वेदियों के लिए आदि एवं अन्त में गायत्री के साथ १७ मन्त्र (आदि में ऋचं वाचं प्रपद्ये' एवं अन्त में 'द्यौः शान्तिः') 'शान्ति के लिए कहे जाते हैं। ऋग्वेदियों को आदि एवं अन्त में गायत्री के साथ ऋ० के १०।९।४, ७।३५।१, ५।४७१५ आदि मन्त्रों के साथ शान्ति करनी चाहिए। इसके उपरान्त चांदी के साथ कुछ सोना ब्राह्मणों को देना चाहिए, तब वैतरणी गौ देनी चाहिए यदि वह मृत्यु के समय न दी गयी हो तो और अन्त में पलंग आदि का दान (शय्या-दान) करना चाहिए।
हमने यह देख लिया है कि मौलिक रूप से सूत्रों (शांखायन० आदि) एवं स्मतियों (मनु आदि) ने इस बात पर बल देकर कहा है कि आशौच के दिनों को बढाना नहीं चाहिए और वेदज्ञों एक आहिताग्नियों को आशौच करना चाहिए (पराशर० ३।५ एवं दक्ष ६।६)। किन्तु अन्ततोगत्वा आशौच को सीधे रूप में मनाने के लिए सभी सपिण्डों के लिए दस दिनों की अवधि निर्धारित हो गयी (मनु ५।५९)। प्राचीन काल में आवागमन के साधन सीमित थे अतः पास में रहनेवाले सम्बन्धियों के यहाँ भी जनन-मरण के समाचार बहुत देर में पहुंचते थे, इसी लिए आशौच-नियमों से सम्बन्धित अवरोध लोगों को बहुत बुरा नहीं लगता था। इसी कारण तथा सभी प्रकार के विभागों, उपविभागों एवं श्रेणियों के विषय में धर्मशास्त्रकारों के बड़े झकाव के कारण हम मध्य काल के लेखकों को आशौच जैसे विषयों पर अत्यधिक ध्यान देते हुए देखते हैं। भारतवर्ष में आशौच-सम्बन्धी जो निया देखने में आते हैं वे अन्यत्र दुर्लभ हैं। आजकल डाक, रेल, वायुयान एवं तार की सुविधाओं के कारण प्राचीन एवं मध्य काल के आशौच-नियम लोगों को बहुत अखरते हैं। कभी-कभी ईर्ष्या करनेवाले या किसी प्रकार के मनमुटाव के कारण दुष्ट प्रकृति के लोग विवाह जैसे उत्सवों में जनन या मरण के संदेश भेजकर बाधा डालते हैं। अतः आशौच-सम्बन्धी नियमों में असुविधाओं के दूरीकरण के लिए उपाय करने चाहिए, जिससे कठिनाइयों, समयापव्यय को दूर कर स्मृति-वचनों के साथ पवित्रता की रक्षा की जा सके। कम-से-कम जननाशौच में आजकल एक सरल नियम का पालन किया जा सकता है, अर्थात केवल माता को दस दिनों का आशौच करना चाहिए। ऐसा करने से उपर्युक्त स्मृति-वचनों में कोई विभेद उत्पन्न नहीं होगा। मरणाशौच के विषय में चार नियम सामान्यतः पर्याप्त होंगे, जो निम्न हैं
(१) पुत्र की मृत्यु पर दस दिनों का आशौच माता-पिता करें, इसी प्रकार माता-पिता की मृत्यु पर पुत्र भी करे, पति की मत्यु पर पत्नी और पत्नी की मृत्यु पर पति भी ऐसा करे और वह भी ऐसा करे जो शवदाह करता है या मृत्यूत्तरभावी कृत्य करता है।
(२) उपर्युक्त लोगों के अतिरिक्त अन्य लोग, जो मृत के पास संयुक्त परिवार के सदस्य के रूप में रहते थे, केवल तीन दिनों का आशौच करें।
(३) सभी सम्बन्धियों के लिए मृत्यु के पश्चात् वर्ष के भीतर संदेश पहुँचने पर सद्यःशौच (केवल स्नान से परिशुद्धि) पर्याप्त है।
(४) वर्ष के उपरान्त मृत्यु-सन्देश पहुंचने पर केवल प्रथम नियम के अन्तर्गत आनेवाले व्यक्ति ही सद्य:शौच करें।
यदि हम प्राचीन एवं आधुनिक अधिवासियों के आचारों पर ध्यान दें तो प्रकट होगा कि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण निषेध मरण पर तथा प्रसव एवं मासिक धर्म के समय स्त्रियों पर रखे गये थे। प्राचीन इजराइलियों में ऐसी प्रथा थी कि मृत्यु होने पर जो कुछ अशुद्ध पदार्थ होते थे वे शिविर के बाहर रख दिये जाते थे और वे मृत के लिए कोई आहुति नहीं देने पाते थे। सीरियनों में जो मृत के कुल के होते थे, वे ३० दिनों तक बाहर रहते थे और मुण्डित-सिर होकर
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