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________________ आशौच के अपवादों का विधि-निषेध; अज्ञात भूतक की तिथि; शान्तिकर्म ११७९ हों या परमहंस हों । इसी प्रकार वानप्रस्थ की मृत्यु पर भी आशौच नहीं होता । जिस व्यक्ति ने जीवितावस्था में ही अपना श्राद्ध कर लिया, उसके सपिण्ड उसके लिए आशौच कर भी सकते हैं और नहीं भी कर सकते । ब्रह्मचारी की मृत्यु पर आशौच होता है। धर्मसिन्धु ( पृ० ४४९ ) ने इतना और कहा है कि युद्ध में मृत के लिए आशौच नहीं होता, किन्तु ब्राह्मणों (जो युद्ध में मृत होते हैं) के लिए शिष्टों की परम्परा या व्यवहार या आचार कुछ और ही है, अर्थात् आशौच किया जाता है। " पराशर ( ३।१२-१३ ) ने व्यवस्था दी है कि यदि कोई देशान्तर में बहुत दिनों तक रहकर मर जाय और यह ज्ञात हो जाय कि वह मृत हो गया, किन्तु मृत्यु- तिथि का पता न चल सके, तो कृष्ण पक्ष की अष्टमी या एकादशी तिथि या अमावस्या को मृत्यु-तिथि मानकर उस दिन जल-तर्पण, पिण्डदान एवं श्राद्ध कर देना चाहिए और परा० मा० ( १/२, पृ० २३७ ) के मत से उसी दिन से आशौच भी मानना चाहिए। किंतु लघु-हारीत का कथन है कि यदि श्राद्ध के समय कोई अवरोध हो जाय या मृत्य- तिथि ज्ञात न हो तो आनेवाले कृष्ण पक्ष की एकादशी को अन्त्येष्टि-कृत्य सम्पादित कर देना चाहिए ( शुद्धिकौमुदी, पृ० १७ ) । निबन्धों ने इस बात पर बहुत बल दिया है कि आशौच के विषय में देशाचारों को महत्त्व अवश्य देना चाहिए। हारलता ( पृ० ५५ एवं २०५ ) ने आदिपुराण से वचन उद्धृत कर देशाचारों के प्रमाण की ओर विशिष्ट संकेत किया है (देश-धर्मप्रमाणत्वात् ) । शुद्धितत्त्व ( पृ० २७५ ) ने मरीचि का एक श्लोक उद्धृत किया है— विशिष्ट स्थानों के प्रचलित शौच-सम्बन्धी नियमों एवं धार्मिक आचारों का अनादर नहीं करना चाहिए; उन स्थानों में धर्माचार उसी प्रकार का होता है । पृ० २७६ पर इसने वामनपुराण से एक उक्ति उद्धृत की है। " यह ज्ञातव्य है, जैसा कि दक्ष ( ६।१५) ने कहा है, कि आशौच के सभी नियम तभी प्रयुक्त होते हैं, जब कि काल स्वस्थ एवं शान्तिमय हो, किन्तु जब व्यक्ति आपद्ग्रस्त हो तो सूतक सूतक नहीं रहता, अर्थात तब आशौच ( के नियमों) का प्रयोग या बलपूर्वक प्रवर्तन नहीं होता । " विष्णुधर्मसूत्र (१९११८-१९ ) ने व्यवस्था दी है कि आशौचावधि के उपरान्त ग्राम के बाहर जाना चाहिए, बाल बनवाने चाहिए, तिल या सफेद सरसों के उबटन से शरीर में लेप करके स्नान करना चाहिए और वस्त्र-परिवर्तन कर घर में प्रवेश करना चाहिए। इसके उपरान्त शान्तिकृत्य करके ब्राह्मणपूजन करना चाहिए ।" बहुत-से निबन्धों ने विस्तृत विधि दी है। उदाहरणार्थ, शुद्धिकौमुदी ( पृ० १५५ - १६४ ) ने तीन वेदों के अनुयायियों के लिए एकादशाह के दिन की विधि पृथक् रूप से दी है। कुछ मुख्य बातें निम्न हैं । सम्पूर्ण शरीर से स्नान के उपरान्त सपिण्डों को गौ, सोना, अग्नि, टूब एवं घृत छूना चाहिए और गोविन्द का नाम-स्मरण करना चाहिए, तब ब्राह्मणों द्वारा जल-मार्जन कराकर 'स्वस्ति' पाठ कहलाना चाहिए। यदि ब्राह्मण न मिलें तो 'शान्ति' स्वयं कर लेनी चाहिए। हारलता का कथन है कि बिना ३६. युद्धमृतेप्याशौचं नेति सर्वग्रन्येषूपलभ्यते न त्वेवं ब्राह्मणेषु शिष्टाचार इति । धर्मसिन्धु ( पृ० ४४९ ) । ३७. तथा च मरीचिः । येषु स्थानेषु यच्छौचं धर्माचारश्च यादृशः । तत्र तनावमन्येत धर्मस्तत्रैव तादृशः ॥ धर (शुद्धिविवेक); शु० कौ० ( पृ० ३६० ) ; शुद्धित० ( पृ० २७५) । तथा च वामनपुराणे - 'देशानुशिष्टं कुलधर्ममग्रयं सगोत्रधर्म न हि सन्त्यजेच्च' (शुद्धितत्त्व, पृ० २७६ ) । ३८. स्वस्थकाले तथा सर्व-सूतक परिकीर्तितम् । आपद्ग्रस्तस्य सर्वस्य सूतकेऽपि न सूतकम् ।। दक्ष ( ६ । १५) । ३९. ग्रामान्निष्क्रम्याशौचान्ते कृतश्मश्रुकर्माणस्तिलकल्कैः सर्षपकल्कैर्वा स्नाताः परिवर्तितवाससो गृहं प्रविशेयुः । तत्र शान्तिं कृत्वा ब्राह्मणानां च पूजनं कुर्युः । विष्णुधर्मसूत्र ( १९।१८-१९ ) । ७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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