________________
प्रारम्भ के नव भाव
११५३
वह हिन्दू-सम्प्रदाय से पृथक् कर दिया जाता है (देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय ८) । गौतमधर्मसूत्र (२०१२) एवं मन (११।१८२-१८३) ने व्यवस्था दी है कि ऐसे मनुष्य को मरा हुआ समझ लेना चाहिए और उसके सम्बन्धियों को उसके सारे अन्त्येष्टि-कर्म सम्पादित कर देने चाहिए, यथा -- जल-तर्पण एवं श्राद्ध करना तथा अशौच मनाना । ५५ बहुत-से टीकाकारों एवं निबन्धों ने विष्णुपुराण (३।१३।३४-३९ ) के वचन उद्धृत किये हैं, जिनमें व्यक्ति की मरणोपरान्त वाली क्रियाएँ निम्नलिखित श्रेणियों में बाँटी गयो हैं; पूर्व, मध्यम एवं उत्तर । शवदाह से लेकर १२ दिनों तक की क्रियाएँ पूर्व, मासिक, सपिण्डीकरण एवं एकोद्दिष्ट नामक श्राद्ध मध्यम तथा वे क्रियाएँ जो सपिण्डीकरण के उपरान्त की जाती हैं और जब प्रेतयोनि के उपरान्त मृत व्यक्ति पितरों की श्रेणी में आ जाता है, तब की क्रियाएँ उत्तर कहलाती हैं। पूर्व एवं मध्यम कृत्य पिता, माता, सपिण्डों, समानोदकों, सगोत्रों तथा राजा द्वारा ( जब वह मृत की सम्पत्ति का अधिकारी हो जाता है) किये जाते हैं । किन्तु उत्तर कृत्य केवल पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, दौहित्र या दौहित्र के पुत्र द्वारा ही सम्पादित होते हैं। स्त्रियों के लिए भी प्रति वर्ष वार्षिक दिन पर एकोद्दिष्ट श्राद्ध-कर्म किया जा सकता है। श्राद्धों को अन्य प्रकार की श्रेणियों में भी बाँटा गया है, यथा-नवश्राद्ध ( मृत्यु के पश्चात् दस दिनों के कृत्य ), नवमिश्र ऐसे कृत्य ( जो दस दिनों के उपरान्त छः ऋतुओं तक किये जाते हैं) तथा पुराण (ऐसे कृत्य जो एक वर्ष के उपरान्त किये जाते हैं ।)
जैसा कि ऊपर उल्लिखित किया जा चुका है, मृत्यु के उपरान्त दस दिनों तक कुशों पर स्थापित एक पत्थर पर एक अंजलि तिलमिश्रित जल छोड़ा जाता है और दक्षिणाभिमुख हो तथा यज्ञोपवीत को दाहिने कन्धे पर रखकर (प्राचीनावोती) एक बड़ा पिण्ड (पूरक-पिण्ड) प्रति दिन कुश पर रखा जाता है जिससे कि मृत प्रेतयोनि से मुक्त हो सके । पिण्ड पर तिल - जल, भृंगराज की पत्तियाँ एवं तुलसीदल छोड़ा जाता है। इसके साथ 'अनादिनिधनो देवः शंखचक्रगदाधरः । अक्षय्यः पुण्डरीकाक्षः प्रेतमोक्षप्रदो भव ॥' का पाठ किया जाता है। कर्ता पिण्ड को जल में छोड़कर स्नान करता है। दस दिनों की विधि के लिए देखिए अन्त्यकर्मदीपक ( पृ० ४३-५० ) एवं अन्त्येष्टिपद्धति ( नारायणकृत ) । इसके अतिरिक्त आश्वलायनगृह्यपरिशिष्ट (३।६) ने पाँच श्राद्धकर्मों के नाम दिये हैं, जिन्हें नवश्राद्ध ( या विषम श्राद्ध ) की संज्ञा मिली है और जो क्रम से विषम दिनों में, यथा-- पहले, तीसरे, पाँचवें, सातवें एवं नवें दिन सम्पादित होते हैं । इनमें बिना पका भोजन दिया जाता है। गरुड़पुराण (प्रेतखण्ड, ३४।३६ ) के मत से छः श्राद्ध पहले दिन से ग्यारहवें दिन तक विषम दिनों में होते हैं; आपस्तम्ब के मत से (धर्मसिन्धु पृ० ४६४ निर्णयसिन्धु पृ० ५८८ शुद्धिप्रकाश पृ० २१४-२१६; श्राद्धतत्त्व, पृ० ६१९) तथा अन्य लोगों के मत से विकल्प भी होता है। अंगिरा एवं वसिष्ठ ने विषम दिनों में ( पहले दिन से ग्यारहवें दिन तक ) छः नवश्राद्धों का उल्लेख किया है। बौ० पि० सू० (२२१०१६) ने पांच की संख्या दी है। कुछ लोगों ने ब्राह्मण के हाथ पर घी मिश्रित भोजन रखने की व्यवस्था दी है। कुछ लोग इसकी अनुमति नहीं देते। कुछ लोग किसी ब्राह्मण के समक्ष या कुश की बनी ब्राह्मण की आकृति के समक्ष बिना पका अन्न रखने की व्यवस्था देते हैं। गरुड़पुराण (२।५।६७ ) का कथन है कि नवश्राद्ध वे श्राद्ध हैं जो मरण-स्थल, शवयात्रा के विश्रामस्थल पर एवं अस्थिसंचयन करते समय सम्पादित होते हैं तथा ५वें, ७वें, ९वें, १० वें तथा ११वें दिन तक किये जाते हैं । शुद्धिप्रकाश ( पृ० २१४ ) ने ऐसे ही मत कात्यायन एवं वृद्ध वसिष्ठ से उद्धृत किये हैं और कहा है कि मृत व्यक्ति तब तक प्रेतावस्था से मुक्त नहीं होता जब तक नवश्राद्ध सम्पादित न हो जायें। गरुड़पुराण ( प्रेतखंड ३४।२७-२८, ४४, ४८ ) का कथन है कि दस दिनों के पिण्डों से मृतात्मा के सूक्ष्म शरीर के कतिपय अंग बन जाते हैं, क्योंकि सर्वप्रथम प्रेतात्मा
५५. तस्य विद्यागुरून् योनिसम्बद्धांश्च संनिपात्य सर्वाण्युदकादीनि प्रेतकार्याणि कुर्युः । गौतमधर्मसूत्र (२०१२) ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org