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________________ ११४६ धर्मशास्त्र का इतिहास पड़ती हों उधर ही रस्सियों का घेरा होना चाहिए। पृथिवी में इतना बड़ा गड्ढा खोदना चाहिए जो पुरुष-नाप के बराबर हो। और देखिए कात्या० श्री० (२१।३।१ एवं ६) जहाँ ऐसा ही वर्णन है। सत्याषाढश्रौ० (२९।११२) ने व्यवस्था दी है कि जब शवदाह का दिन विस्मृत हो जाय तो अमावस्या के दिन, जो माघ, फाल्गन, चैत्र, वैशाख या ग्रीष्म मासों (ज्येष्ठ एवं आषाढ़) के तुरत पश्चात् आये, ईंटों या मिट्टी की समाधि अस्थियों पर बना दी जानी चाहिए। शतपथ ब्राह्मण (१३।८।२-४) ने और आगे कहा है-देवप्रेमी लोग समाधि को पृथिवी से अलग करके नहीं बनाते। किन्तु असुर, प्राच्य आदि उसे पृथिवी से अलग पत्थर पर या इसी प्रकार के अन्य आधारों पर बनाते हैं। समाधि को बिना किसी पूर्वनिश्चित संख्या वाले पत्थरों से घेर दिया जाता है। इसके उपरान्त उस स्थल को (जहाँ समाधि बनने को होती है) पलाश की एक शाखा से वाज० सं० (३५।१ क्षुद्र देवद्रोही यहाँ से भाग जायें) के उच्चारण के साथ बुहार दिया जाता है और कर्ता यम से प्रार्थना करता है कि वह मृत को निवास स्थान दे। इसके उपरान्त शाखा को दक्षिण ओर फेंक देता है। इसके उपरान्त दक्षिण या उत्तर में वह हल में छः बैल जोड़ता है। 'जोतो' की आज्ञा पाने के उपरान्त वह (कर्ता) मन्त्रोच्चारण (वाज० स० ३५।२) करता है। हल को दक्षिण से उत्तर की ओर घुमाकर वह प्रथम सीता (सीर या पहला फार या कूड़) वाज० सं० (४३५।३) के अर्थात् 'वायु पवित्र करें' मन्त्र के साथ जोतता है और उत्तर से पश्चिम जाता है; 'सविता पवित्र करें के साथ पश्चिम से दक्षिण जाता है; 'अग्नि की आभा' के साथ दक्षिण से पूर्व की ओर जाता है। सूर्य की दिव्यता' के साथ सामने उत्तर जाता है। यजु र्वेद के मन्त्रों के साथ वह चार सीता (कूड़) जोतता है। इसके उपरान्त मौनरूप से समाधि-स्थल को बिना पूर्वनिश्चित संख्या में जोतता है। इसके उपरान्त बैलों को छटका देता है (हल से अलग कर देता है)। दाहिनी ओर (दक्षिणपश्चिम में) वह बैलों एवं हल को अलग करता है। तत्पश्चात् कर्ता सभी प्रकार की ओषधियों या शाकों को एक ही मन्त्र (वाज० सं० ३५।४) के साथ बोता है। इसके द्वारा अपने कुल के लोगों की लम्बी आयु के लिए प्रार्थना करता है कि एक के पश्चात् एक वृद्धावस्था में ही मृत्यु पायें। इसके उपरान्त वह अस्थि-पात्र को उझेल देता है। ऐसा वह सूर्योदय के पूर्व ही करता है जिससे कि वैसा करते समय उसके ऊपर सूर्य का उदय हो। वह इसे वाज० सं० (३५।५-६) के पाठ के साथ करता है। तब वह किसी से कहता है--'साँस रोककर उस (दक्षिण) दिशा की ओर बढ़ो और पात्र को फेंकने के उपरान्त बिना पीछे देखे यहाँ लौट आओ।' तब वह वाज० सं० (३५७) का पाठ करता है। इसके उपरान्त वह वाज० सं० (३५।८-९) के साथ मृत की अस्थियों को अंग-अंग के अनुसार व्यवस्थित करता है। अब तेरह अचिह्नित है, जो पुरुष के पैर के बराबर होती हैं, नीचे सजा दी जाती हैं (किन्तु यहाँ अग्निचयन के समान मन्त्रोच्चारण नहीं किया जाता)। तेरह ईंटों में एक ईट ५०. अग्नि-वेदिका की ईंटों पर लम्बी-लम्बी रेखाओं के चिह्न होते हैं (देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय ३५)। अग्निचयन की ईंटें मनुष्य के पैर के बराबर होती हैं। उन पर देवों की पूजा होती है। समाधि-निर्माण में गुल्जनों का सम्मान होता है। शतपथब्राह्मण (१३।८।२-३) में देवों एवं पितरों में पृथक्त्व प्रदर्शित किया गया है, क्योंकि देवी शक्तियाँ मनुष्य की शक्तियों से पृथक् होती हैं। अग्निचयन में बहुधा पक्षी का आकार बनाया जाता है (देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय ३५) । इसी से शतपथ ब्राह्मण ने पंखों एवं पुच्छों की चर्चा की है। कतिपय वर्णों एवं स्त्रियों की लम्बाइयों के विषय में जो व्यवस्था है, वह प्रतीकात्मक है। क्षत्रिय, ब्राह्मण एवं वैश्य क्रम से पुरुष के हाथों (बाहुओं), मुख एवं जंघाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं (ऋ० १०.९०।१२) । कात्या० श्री० (२११४११३१४) ने क्षत्रिय के लिए एक विकल्प दिया है अर्थात् उसकी समाधि छाती के बराबर या बिना हाथ उठाये हुए मनुष्य की लम्बाई के बराबर हो सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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