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भूत का स्मारक श्मशान ( समाधि, स्तूप) बनाना
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आहुतियाँ देकर तथा ब्राह्मण भोजन कराकर उन्हें (ब्राह्मणों को ) शुभ शब्द कहने के लिए प्रेरित करना चाहिए । प्रत्येक ब्राह्मण को एक गाय, एक धातु पात्र, एक नवीन अप्रयुक्त वस्त्र यज्ञ - दक्षिणा के रूप में देना चाहिए। और देखिए सत्याषाढश्रौतसूत्र ( २८|४|१) ।
शतपथब्राह्मण (१३।८।१-४) एवं कात्या० श्र० ने श्मशान या समाधि स्थलों के विषय में मनोरंजक सूचनाएँ दी हैं ।" शतपथब्राह्मण में ऐसा आया है कि मृत्यु के पश्चात् शीघ्र ही श्मशान ( समाधि या चैत्य ) का निर्माण नहीं होना चाहिए, नहीं तो मृत के पाप को कर्ता पुनर्जीवित कर देगा; इतना पर्याप्त समय बीत जाना चाहिए कि लोग मृत की मृत्यु के विषय में भूल से जायँ और यह न जान सकें कि वह कब मृत्यु को प्राप्त हुआ था । समाधि-निर्माण विषम वर्षों में केवल एक नक्षत्र के अन्तर्गत ( अर्थात् चित्रा एवं पुष्य जैसे केवल एक तारा वाले नक्षत्र में, न कि पुनर्वसु एवं विशाखा के द्विसंख्यक या कृत्तिका जैसे बहुसंख्यक तारा वाले नक्षत्र में ) अमावस्या के दिन होना चाहिए। शरद ऋतु, माघ या ग्रीष्मकाल में ऐसा करना अच्छा है। श्मशान या समाधि चार कोणों (चतुःस्रक्ति) वाली होनी चाहिए, क्योंकि देवपूजक लोग अपने समाधि स्थलों को चौकोर बनाते हैं और असुर, प्राच्य लोग आदि मण्डलाकार बनाते हैं। स्थान के चुनाव के विषय में शतपथ ब्राह्मण ने कई दृष्टिकोण दिये हैं, यथा- कुछ लोगों के मत से उत्तर की ओर ढालू स्थान और कुछ लोगों के मत से दक्षिण की ओर, किन्तु सिद्धान्ततः उस स्थान पर समाधि बनानी चाहिए जहाँ समतल हो और दक्षिण दिशा से आता हुआ जल पूर्वाभिमुख ठहर जाय और धक्का देकर न वहे । वह स्थल रमणीक एवं शांत होना चाहिए। समाधि स्थल मार्ग पर या खुले स्थान में नहीं होना चाहिए, नहीं तो मृत के पाप पुनर्जीवित हो जायेंगे । समाधि पर मध्याह्न काल की सूर्य किरणें पड़ती रहनी चाहिए। वहाँ से ग्राम नहीं दिखाई पड़ना चाहिए और उसके पश्चिम में सुन्दर वन, वाटिका आदि होने चाहिए। यदि ये सुन्दर वस्तुएं न हों तो पश्चिम या उत्तर में जल होना चाहिए । समाधि को ऊषर भूमि तथा ऐसी भूमि में होना चाहिए जहाँ पर्याप्त मात्रा जड़ें हो। वहाँ भूमिपाशा नामक पौधे, सरकंडे के पौधे तथा अश्वगन्धा या अध्यust या पृश्निपर्णी के पौधे नहीं होने चाहिए। पास में अश्वत्थ (पीपल), विभीतक, तिल्वक, स्फूर्जक, हरिदु, न्यग्रोध या ऐसे वृक्ष नहीं होने चाहिए जिनके नाम पापमय हों, यथा -- श्लेष्मातक या कोविदार। जिसने अग्नि चयन किया है। उसकी समाधि वेदिका की भाँति बनायी जाती है। समाधि बड़ी नहीं होनी चाहिए नहीं तो मृत के पाप बड़े हो जायँगे । उसकी लम्बाई मनुष्य के बराबर होनी चाहिए, वह पश्चिम एवं उत्तर में चौड़ी होनी चाहिए। जिधर सूर्य की किरणें न
४९. सत्याषाढश्रौतसूत्र ( २८/४/२८) में आया है-- अथैकेषां कुम्भान्तं निधानमनाहिताग्नेः स्त्रियाश्च निबपनान्तं हविर्याजिनः पुनर्दहनान्तं सोमयाजिनश्चयनान्तमग्निचित इति । यही बात बौधा० पि० सू० (२।३।२) में भी पायी जाती है। उपर्युक्त उक्ति में जली हुई अस्थियों के विसर्जन कृत्य की चार विधियाँ हैं-
(१) उन पुरुषों एवं स्त्रियों की, जिन्होंने श्रौताग्नियाँ नहीं जलायी हैं, जली हुई अस्थियाँ पात्र में रखकर गाड़ दी जाती हैं; (२) जिन्होंने हविर्यज्ञ ( जिसमें केवल भात एवं घृत की आहुतियाँ दी जाती हैं) किया है, उनकी अस्थियाँ केवल भूमि में गाड़ दी जाती हैं (गौ० ४।२० ) ; जिन्होंने सोमयज्ञ किया है उनकी अस्थियों का पुनर्दाह किया जाता है तथा ( ४ ) जिन्होंने अग्निचयन का पवित्र कृत्य किया है उनकी अस्थियों पर ईंटों का चैत्य बना दिया जाता है। या मिट्टी का स्तूप उठा दिया जाता है। अस्थि-पात्र पर समाधि, पृथिवी-समाधि एवं अस्थिपुनर्वाह की प्रथाएं मोहेंजोst एवं हरप्पा के ताम्रयुग के लोगों में प्रचलित थीं (देखिए रामप्रसाद चन्द, आयलॉजिकल सर्वे आफ़ इण्डिया, मेम्बायर नं० ३१, पृ०१३-१४) ।
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