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________________ पुत्तल-विधान द्वारा दाहकर्म; आहिताग्नि की पत्नियों की व्यवस्था ११३३ मौसलपर्व (७।१९-२५) में बासुदेव का, स्त्रीपर्व (२६।२८-४३) में अन्य योद्धाओं का तथा आश्रमवासिकपर्व (अध्याय ३९) में कुन्ती, धृतराष्ट्र एवं गान्धारी का दाहकर्म वर्णित है। रामायण (अयोध्याकाण्ड, ७६।१६-२०) में आया है कि दशरथ को चिता चन्दन की लकड़ियों से बनी थी और उसमें अगर एवं अन्य सुगंधित पदार्थ थे; सरल, पद्मक देवदारु आदि की सुगंधित लकड़ियाँ भी थीं; कौसल्या तथा अन्य स्त्रियाँ शिबिकाओं एवं अपनी स्थिति के अनुसार अन्य गाड़ियों में शवयात्रा में सम्मिलित हई थीं। यदि आहिताग्नि (जो श्रौत अग्निहोत्र करता हो) विदेश में मर जाय तो उसकी अस्थियां मंगाकर काले मगचर्म पर फैला दी जानी चाहिए (शतपथब्राह्मण २।५।१।१३-१४) और उन्हें मानव-आकार में सजा देना चाहिए तथा रूई एवं घृत तथा श्रौत अग्नियों एवं यज्ञपात्रों के साथ जला डालना चाहिए। इस विषय में और देखिए कात्यायनश्रीत० (२५।८।९), बौधायनपितृमेधसूत्र (३.८), गोमिलस्मृति (३।४७) एवं वसिष्ठधर्मसूत्र (४।३७) । यदि अस्थियां न प्राप्त हो सके तो सूत्रों ने ऐतरेयब्राह्मण (३२११) एवं अन्य प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर यह व्यवस्था दी है कि पलाश की ३६० पत्तियों से काले मृगचर्म पर मानव-पुत्तल बनाना चाहिए और उसे ऊन के सूत्रों से बाँध देना चाहिए, उस पर जल से मिश्रित जौ का आटा डाल देना चाहिए और घृत डालकर मृत की अग्नियों एवं यज्ञपात्रों के साथ जला डालना चाहिए। ब्रह्मपुराण (शुद्धिप्रकाश, पृ० १८७) ने भी ऐसे ही नियम दिये हैं और तीन दिनों का अशौच घोषित किया है। अपरार्क (पृ० ५४५) द्वारा उद्धृत एक स्मृति में पलाश की पत्तियों की संख्या ३६२ लिखी हुई है। बौधायनपितृमेधसूत्र एवं गौतमपितृमेधसूत्रों के मत से ये पत्तियाँ निम्न रूप से सजायी जानी चाहिए; सिर के लिए ४०, गरदन के लिए १०, छाती के लिए २०, उदर (पेट) के लिए ३०, पैरों के लिए ७०, पैरों के अँगूठों के लिए १०, दोनों वाहों के लिए ५०, हाथों की अंगुलियों के लिए १०, लिंग के लिए ८ एवं अण्डकोशों के लिए १२ । यही वर्णन सत्याषाढश्रौत० (१९।४।३९) में भी है। और देखिए शांखा० श्री० (४।१५।१९-३१), कात्या० श्री० (२५।८।१५), वौधा० पि० सू० (३.८), गौ० पि० सू० (२२११६-१४), गोभिल० (३।४८), हारीत (शुद्धिप्रकाश, पृ० १८६) एवं गरुडपुराण (२।४।१३४-१५४ एवं २।४०।४४)। सूत्रों एवं स्मृतियों में पलाश-पत्रों की उन संख्याओं में मतैक्य नहीं है जो विभिन्न अंगों के लिए व्यवस्थित हैं। अपरार्क (पृ० ५४५) द्वारा उद्धृत एक स्मृति में संख्या यों है--सिर के लिए ३२, गरदन के लिए ६०, छाती के लिए ८०, नितम्ब के लिए २०, दोनों हाथों के लिए २०-२०, अंगुलियों के लिए १०, अंडकोशों के लिए ६, लिंग के लिए ४, जांघों के लिए ६०, घुटनों के लिए २०, पैरों के निम्न भागों के लिए २०, पैर के अंगूटों के लिए १० । जातूकर्ण्य (अपरार्क, पृ० ५४५) के मत से यदि पुत्र १५ वर्षों तक विदेश गये हए अपने पिता के विषय में कुछ न जान सके तो उसे पुत्तल जलाना चाहिए। पुत्तल जलाने को आकृतिवहन कहा जाता है। बृहस्पति ने इस विषय में १२ वर्षों तक जोहने की बात कही है। वैखानसस्मार्तसूत्र (५।१ः ने आकतिदहन को फलदायक कर्म माना है और इसे केवल शव या अस्थियों की अप्राप्ति तक ही सीमित नहीं माना है। शुद्धिप्रकाश (पृ० १८७) ने ब्रह्मपुराण को उद्धृत कर कहा है कि आकृतिदहन केवल आहिताग्नियों तक ही सीमित नहीं मानना चाहिए, यह कर्म उनके लिए भी है जिन्होंने श्रौत अग्निहोत्र नहीं किया है। इस विषय में आहिताग्नियों के लिए अशौच १० दिनों तक तथा अन्य लोगों के लिए केवल ३ दिनों तक होता है। सत्याषाढश्रौत० (२९।४।४१), बौघा० पितृमेघसूत्र (३१७१४) एवं गरुडपुराण (२।४११६९-७०) में ऐसी व्यवस्था दी हुई है कि यदि विदेश गया हुआ व्यक्ति आकृतिदहन (पुत्तल-दाह) के उपरान्त लौट आये, अर्थात् मृत समझा गया व्यक्ति जीवित अवस्था में लौटे तो वह घृत से भरे कुण्ड में डुबोकर बाहर निकाला जाता है, पुनः उसको स्नान कराया जाता है और जातकर्म से लेकर सभी संस्कार किये जाते हैं। इसके उपरान्त उसको अपनी पत्नी के साथ पुनः विवाह करना होता है, किन्तु यदि उसकी पत्नी मर गयी है तो वह दूसरी कन्या से विवाह कर सकता है, और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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