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________________ ११३२ धर्मशास्त्र का इतिहास जब वे मृत को जल देना चाहते हैं तो अपने सम्बन्धियों या साले से जल के लिए इस प्रकार प्रार्थना करते हैं हम लोग उदकक्रिया करना चाहते हैं, इस पर दूसरा कहता है-'ऐसा करो किन्तु पुनः न आना।' ऐसा तभी किया जाता था जब कि मृत १०० वर्ष से कम की आयु का होता था, किन्तु जब वह १०० वर्ष का या इससे ऊपर का होता था तो केवल 'ऐसा करो' कहा जाता था। गौतमपित मेघसूत्र (१।४।४-६) में भी ऐसा ही प्रतीकात्मक वार्तालाप आया है। कोई राजकर्मचारी, सगोत्र या साला (या बहनोई) एक कटीली टहनी लेकर उन्हें जल में प्रवेश करने से रोकता है और कहता है, 'जल में प्रवेश न करों'; इसके उपरान्त सपिण्ड उत्तर देता है-'हम लोग पुनः जल में प्रवेश नहीं करेंगे।' इसका सम्भवतः यह तात्पर्य है कि वे कुटुम्ब में किसी अन्य की मृत्यु से छुटकारा पायेंगे, अर्थात् शीघ्र ही उन्हें पुनः नहीं आना पड़ेगा या कुटुम्ब में कोई मृत्यु शीघ्र न होगी। मृत को जल देने के लिए कुछ लोग अयोग्य माने गये हैं और कुछ मृत व्यक्ति भी जल पाने के लिए अयोग्य ठहराये गये हैं। नपुंसक लोगों, सोने के चोरों, व्रात्यों, विधर्मी लोगों, भ्रूणहत्या (गर्भपात) करनेवाली तथा पति की हत्या करनेवाली स्त्रियों, निषिद्ध मद्य पीनेवालों (सुरापियों) को जल देना मना था। याज्ञ० (३१६) ने व्याख्या की है कि नास्तिकों, चार प्रकार के आश्रमों में न रहनेवालों, चोरों, पति की हत्या करनेवाली नारियों, व्यभिचारिणियों, सुरापियों, आत्महत्या करनेवालों को न तो मरने पर जल देना चाहिए और न अशौच मनाना चाहिए। यही बात मन (५।८९-९०) ने भी कही है। गौतमधर्मसूत्र (१४।११) ने व्यवस्था दी है कि उन लोगों की न तो अन्त्येष्टि-क्रिया होती है, न अशौच होता है, न जल-तर्पण होता है और न पिण्डदान होता है, जो क्रोध में आकर महाप्रयाण करते हैं, जो उपवास से या शस्त्र से या अग्नि से या विष से या जल-प्रवेश से या फांसी लगाकर लटक जाने से या पर्वत से कुदकर या पेड़ से गिरकर आत्महत्या कर लेते हैं।“ हरदत्त (गौ०१४।११) ने ब्रह्मपुराण से तीन पद्य उद्धत कर कहा है कि जो ब्राह्मण-शाप या अभिचार से मरते हैं या जो पतित हैं वे इसी प्रकार की गति पाते हैं। किन्तु अंगिरा (मिता०, याज्ञ० ३।६) का कथन है कि जो लोग असावधानी से जल या अग्नि द्वारा मर जाते हैं उनके लिए अशौच होता है और उदकक्रिया की जाती है। देखिए वैखानसश्रौतसूत्र (५।११), जहाँ ऐसे लोगों की सूची है जिनका दाहकर्म नहीं होता। महाभारत में अन्त्येष्टि-कर्म का बहुधा वर्णन हुआ है, यथा आदिपर्व (अध्याय १२७) में पाण्डु का दाह-कर्म (चारों ओर से ढंकी शिबिका में शव ले जाया गया था, वाद्य यन्त्र थे, जलूस में राजछत्र एवं चामर थे, साधओं को धन बाँटा जा रहा था, गंगातट के एक सुरम्य स्थल पर शव ले जाया गया था, शव को स्नान कराया गया था, उस पर चन्दनलेप लगाया गया था); स्त्रीपर्व (अध्याय २३।३९-४२) में द्रोण का दाह-कर्म (तीन साम पढ़े गये थे, उनके शिष्यों ने पत्नी के साथ चिता की परिक्रमा की, गंगा के तट पर लोग गये थे); अनुशासनपर्व (१६९। १०-१९) में भीष्म का दाह-कर्म (चिता पर सुगंधित पदार्थ डाले गये थे, शव सुन्दर वस्त्रों एवं पुष्पों से ढंका था, शव के ऊपर छत्र एवं चामर थे, कौरवों की नारियाँ शव पर पंखे झल रही थीं और सामवेद का गायन हो रहा था); ३८. प्रायानाशकशस्त्राग्निविषोदकोबन्धनप्रपतनश्चेच्छताम् । गौ० (१४।११); क्रोधात् प्रायं विषं वह्निः शस्त्रमुबन्धनं जलम् । गिरिवृक्षप्रपातं च ये कुर्वन्ति नराधमाः॥ ब्रह्मदण्डहता ये च ये चैव ब्राह्मणैर्हताः। महापातकिनो ये च पतितास्ते प्रकीर्तिताः ॥ पतितानां न दाहः स्यान्न च स्यादस्थिसंचयः । म चाश्रुपातः पिण्डो वा कार्या श्राद्धक्रिया न च ॥ ब्रह्मपुराण (हरदत्त, गौ० १४१११; अपरार्क पृ० ९०२--९०३), देखिए औशनसस्मृति (७॥१, पृ० ५३९), संवर्त (१७८-१७९), अत्रि (२१६-२१७), कूर्मपुराण (उत्तरार्ध २३॥६०-६३), हारलता (पृ० २०४), शुद्धिप्रकाश (पृ० ५९)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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