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________________ ११२८ धर्मशास्त्र का इहतिास पत्तियाँ दांत से चबानी चाहिए; आचमन करना चाहिए; अग्नि, जल, गोबर, श्वेत सरसों का स्पर्श करना चाहिए; धीरे से किसी पत्थर पर पैर रखना चाहिए और तब घर में प्रवेश करना चाहिए। सपिण्डों का यह कर्तव्य है कि वे अपने सम्बन्धी का शव ढोएँ, ऐसा करने के उपरान्त उन्हें केवल स्नान करना होता है, अग्नि को छूना होता है और पवित्र होने के लिए घृत पीना पड़ता है (गौ० १४।२९; याज्ञ० ३।२६; मनु ४।१०३; परा० ३।४२; देवल, परा० मा० ११२, पृ० २७७ एवं हारीत, अपरार्क पृ० ८७१)। सपिण्ड-रहित ब्राह्मण के मृत शरीर को ढोनेवाले की पराशर (३।३।४१) ने बड़ी प्रशंसा की है और कहा है कि जो व्यक्ति मृत ब्राह्मण के शरीर को ढोता है वह प्रत्येक पग पर एक-एक यज्ञ के सम्पादन का फल पाता है और केवल पानी में डुबकी लेने और प्राणायाम करने से ही पवित्र हो जाता है। मनु (५१.१. १०२) का कथन है कि जो व्यक्ति किसी सपिण्डरहित व्यक्ति के शव को प्रेमवश ढोता है वह तीन दिनों के • उपरान्त ही अशौचरहित हो जाता है। आदिपुराण को उद्धृत करते हुए हारलता (पृ० १२१) ने लिखा है कि यदि कोई क्षत्रिय या वैश्य किसी दरिद्र ब्राह्मण या क्षत्रिय (जिसने सब कुछ खो दिया हो) के या दरिद्र वैश्य के शव को ढोता है, वह बड़ा यश एवं पुण्य पाता है और स्नान के उपरान्त ही पवित्र हो जाता है। सामान्यतः आज भी (विशेषतः ग्रामों में) एक ही जाति के लोग शव को ढोते हैं या साथ जाते हैं और वस्त्रसहित स्नान करने के उपरान्त पवित्र मान लिये जाते हैं। कुछ मध्य काल की टीकाओं, यथा मिताक्षरा ने जाति-संकीर्णता की भावना से प्रेरित होकर व्यवस्था दी है कि “यदि कोई व्यक्ति प्रेमवश शव ढोता है, मृत के परिवार में भोजन करता है और वहीं रह जाता है तो वह दस दिनों तक अशौच में रहता है। यदि वह मृत व्यक्ति के घर में केवल रहता है और भोजन नहीं करता तो वह तीन दिनों तक अशौच में रहता है । यह नियम तभी लागू होता है जब कि शव को ढोनेवाला मृत की जाति का रहता है। यदि ब्राह्मण किसी मृत शूद्र के शव को ढोता है तो वह एक मास तक अपवित्र रहता है, किन्तु यदि कोई शूद्र किसी मृत ब्राह्मण के शव को ढोता है तो वह दस दिनों तक अशौच में रहता है।" कूर्मपुराण ने व्यवस्था दी है कि यदि कोई ब्राह्मण किसी मृत ब्राह्मण के शव को शुल्क लेकर ढोता है या किसी अन्य स्वार्थ के लिए ऐसा करता है तो वह दस दिनों तक अपवित्र (अशौच में) रहता है, और इसी प्रकार कोई क्षत्रिय , वैश्य एवं शूद्र ऐसा करता है तो क्रम से १२, १५ एवं ३० दिनों तक अपवित्र रहता है। विष्णुपुराण का कथन है कि यदि कोई व्यक्ति शल्क लेकर शव ढोता है तो वह मत व्यक्ति की जाति के लिए व्यवस्थित अवधि तक अपवित्र रहता है। हारीत (मिता०, याज्ञ० ३।२; मदनपारिजात पृ० ३९५) के मत से शव को मार्ग के गांवों में से होकर नहीं ले जाना चाहिए। मनु (५।९२) एवं वृद्ध-हारीत (९।१००-१०१) का कथन है कि शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय एवं ब्राह्मण का मृत शरीर क्रम से ग्राम या बस्ती के दक्षिणी, पश्चिमी, उत्तरी एवं पूर्वी मार्ग से ले जाना चाहिए। यम एवं गरुडपुराण (२२४५६-५८) का कथन है कि चिता के लिए अग्नि, काष्ठ (लकड़ी), तृण, हवि आदि उच्च वर्णों की अन्त्येष्टि के लिए शूद्र द्वारा नहीं ले जाना चाहिए, नहीं तो मृत व्यक्ति सदा प्रेतावस्था में ही रह जायगा। हारलता (पृ० १२१) का कथन है कि यदि शूद्रों द्वारा लकड़ी ले जायी जाय तो ब्राह्मण के शव के चिता-निर्माण के लिए ब्राह्मण ही प्रयक्त होना चाहिए। स्मतियों एवं पुराणों ने व्यवस्था दी है कि शव को नहलाकर जलाना चाहिए, शव को नग्न रूप में कभी न जलाना चाहिए, उसे वस्त्र से ढंका रहना चाहिए, उस पर पुष्प रखने चाहिए और चन्दन-लेप करना चाहिए; अग्नि को शव के मुख की ओर ले जाना चाहिए। किसी व्यक्ति को कच्ची मिट्टी के पात्र में पकाया हुआ भोजन ले जाना चाहिए, किसी अन्य व्यक्ति को उस भोजन का कुछ अंश मार्ग में रख देना चाहिए और चाण्डाल आदि (जो श्मशान में रहते हैं) के लिए वस्त्र आदि दान करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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