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धर्मशास्त्र का इतिहास जो देवों को अभिलाषाओं को ढोता है। (३) तुम्हारी आँखें सूर्य की ओर जायें , तुम्हारी साँस हवा की ओर जाय और तुम अपने गुणों के कारण स्वर्ग या पृथिवी को जाओ या तुम जल में जाओ यदि तुम्हें वहाँ आनन्द मिले (या यदि यही तुम्हारा भाग्य हो तो), अपने सारे अंगों के साथ तुम ओषधियों (जड़ी-बूटियों) में विराजमान होओ! (४) हे जातवेदा, तुम उस बकरी को जला डालो, जो तुम्हारा भाग है, तुम्हारी ज्वाला, तुम्हारा दिव्य प्रकाश उस बकरी को जला डाले; २२ तुम इसे (मृत को) उन लोगों के लोक में ले जाओ जो तुम्हारे कल्याणकारी शरीरों (ज्वालाओं) के द्वारा अच्छे कर्म करते हैं। (५) हे अग्नि, (इस मृत को) पितरों की ओर छोड़ दो, यह जो तुम्हें अर्पित है चारों ओर घूम रहा है। हे जातवेदा, यह (नव) जीवन ग्रहण करे और अपने हव्यों को बढ़ाये तथा एक नवीन (वायव्य) शरीर से युक्त हो जाय। (६) (हे मृत व्यक्ति ! ) वह अग्नि, जो सब कुछ जला डालता है, तुम्हारे उस शरीरांग को दोषमुक्त कर दे, जो काले पक्षी (कौआ) द्वारा काट लिया गया है, या जिसे चींटी या सर्प या जंगली पशु ने काटा है, और ब्राह्मणों में प्रविष्ट सोम भी यही करे। (७) (हे मृत व्यक्ति ! ) तुम गायों के साथ अग्नि का कवच धारण करो (अर्थात् अग्नि की ज्वालाओं से बचने के लिए गाय का चर्म धारण करो) और अपने को मोटे मांस से छिपा लो, जिससे (वह अग्नि) जो अपनी ज्वाला से घेर लेता है, जो (वस्तुओं को नष्ट करने में) आनन्दित होता है, जो तीक्ष्ण है और पूर्णतया भस्म कर देता है, (तुम्हारे भागों को) इधर-उधर बिखेर न दे। (८) हे अग्नि, इस प्याले को, जो देवों को एवं सोमप्रिय (पितरों) को प्रिय है, नष्ट न करो। इस चमसे (चम्मच या प्याले) में, जिससे देव पीते हैं, अमर देव लोग आनन्द लेते हैं। (९) जो अग्नि कच्चे मांस का भक्षण करता है, मैं उसे बहुत दूर भेज देता हूँ, वह अग्नि जो दुष्कर्मों (पापों) को ढोता है यम लोक को जाय ! दूसरा अग्नि (जातवेदा), जो सब कुछ जानता है, देवों को अर्पित हव्य ग्रहण करे। (१०) मैं, पितरों को हव्य देने के हेतु (जातवेदा) अग्नि को निरीक्षित करता हुआ, कच्चा मांस खानेवाले अग्नि को पृथक् करता हूँ जो तुम्हारे घर में प्रविष्ट हुआ था; वह (दूसरा अग्नि) धर्म (गर्म दूध या हव्य) को उच्चतम लोक की ओर प्रेरित करे। (११) वह अग्नि जो हव्यों को ले जाता है, ऋत के अनुसार समृद्धि पानेवाले पितरों को उसे दे। वह देवों एवं पितरों को हव्य दे। (१२) (हे अग्नि ! ) हमने, जो तुम्हें प्यार करते हैं, तुम्हें प्रतिष्ठापित किया है और जलाया है। तुम प्यारे पितरों को यहाँ ले आओ, जो हमें प्यार करते हैं और वे हव्य ग्रहण करें। (१३) हे अग्नि! तुम उस स्थल को, जिसे तुमने शवदाह में जलाया, (जल से) बुझा दो। कियाम्बु (पौधा) यहाँ उगे और दूर्वा घास अपने अंकुरों को फैलाती हुई यहाँ उगे ! (१४) हे शीतिका (शीतल पौधे), हे शीतलताप्रद ओषधि, हे ह्लादिका (तरोताजा करनेवाली बूटी) आनन्द बिखेरती हुई मेढकी के साथ पूर्णरूपेण घुल-मिल जाओ ! तुम इस अग्नि को आनन्दित करो।"
ऋग्वेद (१०।१७)-इस सूक्त के ३ से लेकर ६ तक के मन्त्रों को छोड़कर अन्य मन्त्र अन्त्येष्टि पर प्रकाश नहीं डालते, अतः हम केवल चार मन्त्रों को ही अनूदित करेंगे। प्रथम दो मन्त्र त्वष्टा की कन्या एवं विवस्वान् के विवाह एवं विवस्वान् से उत्पन्न यम एवं यमी के जन्म की ओर संकेत करते हैं। निरुक्त (१२।१०-११) में दोनों की व्याख्या
२२. ऋ० (१०।१६।४)....अजो भागः-इससे उस बकरी की ओर संकेत है जो शव के साथ ले जायी जाती थी। और देखिए ऋ० (१०६७), जहाँ शव के साथ गाय के जलाने की बात कही गयी है।
२३. यह मन्त्र कुछ जटिल है। यदि इस मन्त्र के शाब्दिक अर्थ पर ध्यान दें तो प्रकट होता है कि 'क्रव्यात्' अग्नि पितृयज्ञ में प्रयुक्त होती है। ऐसा कहना सम्भव है कि 'क्रव्याद' अग्नि को अपवित्र माना जाता था और वह साधारण या यकिय अग्नि से पृथक् यी।
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